पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२३५

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तीसरा अध्याय साधारण वाह्य ज्ञान हो जाता है, जहाँ से फिर ऊपर की भूमिकाओं के रहस्यों को अवगत करने के लिए क्रमशः नवीन तवृत्तियों की श्रावश्यकता होगी। यह क्रम तब तक बराबर रहेगा जब तक अंतर्तम वृत्ति अथवा सहजज्ञान के द्वारा परम तत्व, निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो जाता । कबीर के नाम से प्रचलित एक दोहे में जो कबीर का नहीं जान पड़ता, सात सुरतियों का उल्लेख है, जिससे सात अंत- वृत्तियों की सूचना मिलती है । सुरति का वर्णन अगले अध्याय में किया जायगा। दादू ने तीन दृष्टियों का उल्लेख किया है जिन्हें उन्होंने चर्मदृष्टि, श्रात्मदृष्टि और ब्रह्मदृष्टि कहा है ।+ इन्हें योग की दृष्टियों ( नासाग्र दृष्टि तथा भूमध्य दृष्टि) के साथ नहीं गड़बड़ाना चाहिए । योगाभ्यास की दृष्टियाँ न होकर ये ज्ञान-भूमिका सूचक दृष्टियाँ हैं। चर्म दृष्टि का संबंध भौतिक जगत से है (विचारपूर्ण चतुज्ञान से उसका अभिप्राय है, जैसा पशुओं में संभव नहीं । आत्मदृष्टि का शब्दब्रह्म से और ब्रह्मदृष्टि का निर्गणब्रह्म से । यही ब्रह्मदृष्टि सहज ज्ञान अथवा अपरोक्षानुभूति है। किंग्सलैंड के अनुसार मन अथवा जीवन की भौतिक (फिज़िकल) ।

  • सात सुरति के बाहर, सो सोरह सँख के पार ।

तहँ समरथ को बैठका, हंसन केर अधार ।। ६५८ ॥ -क० ब०, पृ६६। दादू सबही व्याधि की औषधि एक विचार। समझे थें सुख पाइये, कोइ कुछ कहै गँवार ।। कोटि अचारी एक विचारी, तउन सरभरि होइ। आचारी सब जग भरया, विचारी विरला कोइ । + देखिये पाद टिप्पणी सं. १ पिछला पृ०. ११० ।