पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२४०

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१६० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय द्वारा अभिव्यक्त किया गया है, परंतु इन उक्तियों को देखने से पता चलेग्न कि उनमें दाम्पत्य-संबंध पर उतना जोर नहीं दिया गया है, जितना श्रानंदानुभूति पर । साथ ही यह संबंध उनमें रूपक के रूप में रहता है, तथ्य के रूप में नहीं। परमात्मा के साथ सूफियों का और उन्हीं के समान संतों का, दाम्पत्य-संबंध तथ्य के रूप में निरूपित किया जाता है। अपने विचारों के बाहरी आवरण के संबंध में सूफियों से कुछ प्रभावित होने पर भी उपनिषदों की आंतरिक भावना की इन संतों ने पूर्ण रूप से रक्षा की है। (मेरा यह अभिप्राय नहीं इन निरक्षर साधु-संतों ने पोथियाँ लेकर उपनिषदों का अध्ययन किया था। परंतु इसमें संदेह नहीं कि उपनिषदों के सिद्धांतों और उपदेशों से सर्वथा परिचित थे। जान पड़ता है कि मध्य- युग के प्राचार्यों के कारण सारा धार्मिक वातावरण वेदांत से श्रोत प्रोत हो गया था, जैसा कि आज भी है। इसी वातावरण में अबाध साँस लेने के कारण वह इन अपढ़ साधु-संतों के अस्तित्व का अभिन्न अंग सा हो गया । यह बात तो निस्संदेह स्वीकार कर ली जा सकती है कि कबीर को उपनिषदों के सिद्धांतों का ज्ञान स्वयं अपने गुरु रामानंद के मुख से प्राप्त हुआ और कबीर के शिष्य-प्रशिष्यों में होता हुआ वह आगे फैला । पिछले एक स्तंभ में निर्गुण संतों में तीन सिद्धांतिक धाराओं का उल्लेख किया गया है। किंतु यह बात संतों पर पड़े हुए उपनिषदी प्रभाव को असिद्ध करने के लिए उपस्थित नहीं की जा सकती क्योंकि स्वयं उपनिषदों में मतभेद के लिए पर्याप्त स्थान है । इसी से वेदांत के ही क्षेत्र में कई मत चल पड़े हैं, जिनमें से तीन के आधार पर मैंने संत मत की इन तीन धाराओं का नामकरण किया है इस बात का उल्लेख पीछे हो चुका है कि यद्यपि प्रारम्भ में निरंजन, । परब्रह्म परमात्मा का ही पर्याय समझा जाता था फिर भी आगे चलकर