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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२७३

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सा चतुर्थ अध्याय १६३ के राजा लोग भी नहीं पा सकते ।" ऐसे प्रलोभनों के बीच निवास करते भी इनसे अछूता रह जाना अलौकिक शक्ति-द्वारा ही संभव हो सकता है। किंतु वह शक्ति निर्बल मानव को कहाँ से उपलब्ध हो सकती है? निर्गुणी तुरंत उत्तर देगा; 'राम की भक्ति और उनकी शरण में संभव है'। पहले यह काम इतना कठिन जान पड़ता है मानों नितांत असभव है। किंतु ऐसी बात नहीं है, जब निरंतर अभ्यास करते-करते हमारी स्मृति अथवा आदिम आध्यात्मिक पिपासा संयोग के लिए तीव्र अभिलाषा में परिणत हो जाती है, तब यह भीतरी युद्ध आसानी से जीत लिया जाता है, क्योंकि सारी चेतन शक्ति प्रमपात्र की ओर ही केन्द्रित हो जाती है और इन्द्रियाँ आपसे आप आज्ञापालन में निरत होने लगती हैं !x इसलिए निर्गुणो अपने हृदय को अभिलाषा की अग्नि द्वारा प्रज्ज्वलित कर देने का प्रयत्न करता है । राधास्वामी संप्रदाय की प्रार्थना-मण्डलियों में जिसमें प्रत्येक उपस्थित व्यक्ति अभिलाषा की उत्कट दशा में लीन रहता है, एक विचित्र दृश्य दिखलायी पड़ता है जिससे कोई दर्शक बिना प्रभावित । नहीं रह सकता । कबीर के निराले शब्दों में यह वही तीव्र ॐ नैक निहारि हो माय बीनती करें । दीन वचन बोलै कर जोरै फुनि-फुनि पाइँ परै ।। कनक लेहु जेता मन भावे, कामिनि लेहु मन हरनी । पुत्र लेहु विद्या अधिकारी, राज लेहु सब धरनी ॥ अठ सिधि लेहु तुम हरि के जना, नवै निधि तुम्ह आग सुर नर सकल भुवन के भूपति तेऊ लहैं न मागें । सं० बा० सं०, पद २६६, पृ० १८० । x विरह जगावै दरद को, दरद जगावै जीव । जीव जगावै सुरति को, पंच पुकारे पीव ।। वही, पृ० ८२, दादू ।