१६४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय उत्कंठा है जो साधक को परब्रह्म के तेज तक पहुँचाकर उसे उसमें लीन कर देने का आश्वासन देती है और जिसके कारण प्रत्येक रहस्यवादी मत, बलपूर्वक इन्द्रियों का दमन करना आवश्यक समझने वाले सप्रदायों से कहीं श्रेष्ठ समझा जाता है। घोर नियंत्रणों से प्रतिक्रिया-स्वरूप घोर उपद्रवों का उठ खड़ा होना भी संभव है। उनके द्वारा कुछ समय तक इंद्रियों की भोगने की शक्ति भले ही कम हो जाय, उनसे उन वासनाओं का अंत नहीं हो सकता जो इन्द्रियों को सदा भोगने के लिए प्रेरित करती रहती हैं। किसी भी आध्यात्मिक साधना की पूर्णता के लिए श्रावश्यक है कि वह बाह्य लक्षणों के निवारण की चेष्टा करने की जगह उनके मूल रोगों की जड़ को ही दूर करने की चेष्टा करे । कबीर का कहना है कि 'जड़ में पानी दो, सारी शाखाएं ही पियेंगी। और इसी परिपूर्ण भक्ति-प्रणाली के आधार पर उनका दावा उसके फल स्वरूप, परमात्मा को प्राप्त करने का है। निर्गुण मत प्रात्मपीडन को. नहीं पसंद करता । शरीर को कष्ट पहुँचाना भक्तिमार्ग में एक स्पष्ट रुकावट है और इसी कारण, पाप समझा जाता है। शरीर को अपने उद्देश्य की पूर्ति का साधन समझ उसे सुरक्षित रखना नितांत आवश्यक है ।= एक भूखा मनुष्य पूरी सेवा नहीं कर सकता । जिस प्रकार कबीर कहते हैं उसी प्रकार नानक का भी कहना 9 भूखे भगति न कीज, अपनी माला लीज । ग्रंथ, पृ. ३५३ । + सोंचो मूल पिवै सब डारी । सं० वा० सं०, पृ० १२५, ११५ । कबीर भये हैं केतकी, भँवर भये सब दास । जहँ जहँ भक्ति कबीर की, तहँ तहँ राम निवास ।। -क० ग्र०, पृ० ५३, ११ ।
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