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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२९६

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२१६ • हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय अंतर नहीं, केवल श्राकार मात्र से ही भिन्नता लक्षित होती है, अपने अहंभाव का त्याग करके जीते जी मर जाओ और तभी तुम्हें वह परमे- श्वर प्राप्त हो सकेगा ।" नवीन साधकों के लिए तो गुरु परमेश्वर से भी बड़ा हुश्रा करता है क्योंकि गुरु-कृपा द्वारा ही शिष्य भगवत्कृपा की ओर उन्मुख होना सीख पाता है और तभी उसके मार्ग में वह अपने को पृवृत्त भी कर सकता है। कबीर कहते हैं कि "वे लोग अंधे हैं जो गुरु के विषय में कुछ और कहा करते हैं। यदि परमेश्वर रुष्ट हो जाय तो गुरु तुम्हें बचा सकता है, किंतु यदि स्वयं गुरु ही रुष्ट हो जाय तो फिर अपनी रक्षा की कोई भी अाशा नहीं रह जाती।"+ और फिर "गुरु और गोविंद दोनों ही हमारे समक्ष खड़े हैं, मैं किसके चरणों पर गिरूँ ? मैं तो अपने गुरु की ही बलिहारी जाऊँगा जिसने मुझे गोविंद के दर्शन करा दिये थे।"x √ गुरु के विद्यमान रहने मात्र से ही प्राध्यात्मिक आकर्षण का अनुभव होने लगता है और संसार ओर से एक प्रकार की विरक्ति भी श्रा जाती है जिसे वैराग्य वा विरति कहा करते हैं। यदि ऐसा न हो तो

  • गुरु गोविन्द तो एक हैं, दूजा पहु प्राकार ।

आपा मेटि जीवत मरै, तो पावै करतार ॥ २६ ॥ क० ग्रं॰, पृ० ३। + कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और । हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर ॥ ४॥ वही, पृ० २। गुरु गोबिन्द दोनों खड़े, काके लागू पायें बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोबिंद दिया बताय । सं. बा० सं०, पृ० २-१२ ।