चतुर्थ अध्याय २१७ निर्विवाद है कि प्राथमिक दशा का अभी अंत नहीं हुआ और गुरु के लिए अभी खोज करना शेष रह गया है। योग्य शिष्य के लिए गुरु जो भोतरी शिक्षा दिया करता है वह नाम- सुमिरन अथवा भगवत् नाम के स्मरण से संबंध रखती हैं। और उसका अभ्यास कतिपय योग-साधनाओं की सहायता से नाम-सुमिरन किया जाता है और दोनों को इसी कारण शब्दयोग प्रार्थना भी कहा करते हैं। इस प्रकरण में हम केवल नाम के संबंध में ही कुछ कहेंगे और अन्य साधनाओं का प्रसंग आगेवाले प्रकरण के लिए छोड़ देंगे। (नाम-सुमिरन को संसार के सभी धर्मों ने एक विशेष स्थान दिया है। योग-संबंधी सभी हिंदू संप्रदायों ने कुछ शब्दों के बार-बार दुहराने में एक बहुत बड़ी शकि का अभ्यास पाया है और सबसे अधिक शक्ति- संपन्न ॐकार को बतलाया है। प्रतिदिन सहस्रों हिंदुओं द्वारा पाठ किये जानेवाले 'विष्णु-सहस्र नाम' के अंतर्गत विष्णु के सहस्र नामों की एक तालिका मात्र मिलती है। बहुत से लोग एक ही मंत्र का सहस्रों बार जप किया करते हैं। सूफियों को भी इसके लाभप्रद होने में विश्वास है और इस साधना को 'जिक्र' कहा करते हैं। परन्तु निर्गुण पंथ की भाँति कोई भी नाम-सुमिरन को महत्व प्रदान नहीं करता । (नाम-सुमिरन संसार के सभी दुखों को दूर करने के लिए 'राम बाण' के समान प्रभावशाली औषध है। जिस किसी ने नाम को अपने हृदय में स्थान दे दिया वह अपनी मुक्ति के लिए निश्चित हो गया और वह दूसरों को भी मोक्ष प्राप्त करने में सहायक बन सकेगा । राम का नाम स्मरण करनेवाले पर कर्म का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता, किंतु इसके बिना सत्कर्मों का भी कोई परिणाम नहीं मिल सकता । बखना ने कहा है- “सतगुरु ने जिस 'सत्यनाम' औषध का मुझे पता बतला दिया है वह संसार के सारे दुखों के निवारण के लिए
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