पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२९९

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. चतुर्थ अध्याय २१६ नक्षत्रों के समान, लुप्त हो जाने पर भी नष्ट नहीं होंगे। गुलाल साहब ने भी भीखा साहब को उपदेश दिया था कि राम के एक होने पर भी नाम अनेक हैं, किंतु उन्हें राम के अतिरिक्त और कोई भी उतना पसंद नहीं। तुलसी साहब एवं शिवदयाल के अतिरिक्त प्रायः सभी निर्गणं- पंथियों ने सुमिरन के लिए 'राम' शब्द को ही स्वीकार किया है। उक्त दो महात्माओं ने इस नाम को इस कारण पसंद नहीं किया कि इसका संबंध हिंदुओं के रामावतार से है । तुलसी. साहब ने इसी कारण 'सन्त नाम को अपनाया था और शिवदयाल ने उसी प्रकार 'राधा स्वामी' को पसन्द किया था। 'राधास्वामी' शब्द कबीर की रचनाओं में कहीं भी नहीं देख पड़ता, किंतु 'राधास्वामी' के अनुयायियों का कहना है कि उन्होंने इसे कबीर उपदेशों से ही ग्रहण किया है। इसके प्रमाण में वे नीचे लिखी साखी उद्धृत करते हैं- कबीर धारा अगम की, सतगुरु दई लखाय । उलटि ताहि सुमिरन करो, स्वामी संग लगाय ।। ररा करि टोप ममा करि बस्तर । ग्यान रतन करि खागि रे। ३५० । क० ग्रं०, पृ० २०६। परभाते तारे खिसहि, त्यों इहिं खिसै सरीरु । पै दुइ अक्खर ना खिसहि, सो गहि रहा कबीरु ॥१०॥ वही, पृ० २५६ । + राम सो एक नाम बहुतेरा । नाम एक रमिता को फेरा। सतगुरु शब्द सुने जो सरना। रामनाम परे नाम न जाना। 'महात्माओं की बानी', पृ० २०१ ।