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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३००

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२२० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय जिसका अभिप्राय है कि सद्गुरु ने अगम से आती हुई आध्यात्मिक धारा को प्रत्यक्ष कर दिया, उसे उलट कर स्वामी के साथ मिला दो और उसी का सुमिरन करो। परन्तु 'राधास्वामी' के अनुयायियों का कहना है कि 'धारा' के दोनों अक्षर यहाँ पर बदल देने चाहिए। जिससे वह शब्द 'राधा' बन जाय और उसमें स्वामी शब्द जोड़ कर पूर्ण 'राधा- स्वामी' का स्मरण करना चाहिए । जो हो इसमें संदेह नहीं कि स्मरण में ईश्वर का कोई न कोई नाम चुन लेना पड़ता है। परन्तु अन्य कई सम्प्रदायों के विपरीत, निर्गुणपंथी नाम-स्मरण का अर्थ कोई बाह्य साधना नहीं समझते और न इसे किन्हीं पवित्र 'शब्दों की भाँति मंत्रवत् दुहराने को ही सब कुछ मानते हैं । ऐसे मांत्रिक दुहरावे के प्रति उन्हें बड़ी घृणा है। उन पंडितों के विरुद्ध, जो नाम को उसे वास्तविक हृद्गत भावों का प्रतीक मात्र होने के अतिरिक्त स्वयं विशिष्ट शक्ति सम्पन्न होना भी मानते हैं, कबीर ने कहा है--"पंडित व्यर्थ की बकबाद करते हैं, यदि 'राम' कहने मात्र से ही संसार को मुक्ति मिल जाय तो 'खाँड' शब्द के कहने मात्र से ही हमारा मुंह भी मीठा हो सकता है। यदि 'श्राग' कहने मात्र से ही पाँव जलने लगे अथवा 'पानी' कहने मात्र से ही प्यास जाती रहे तथा 'भोजन'. कहने मात्र से ही भूख मिट जाय तो सभी मुक्ति के भागी हो सकेंगे। परन्तु केवल ऐसे मांत्रिक स्मरणों से वास्तव में कोई भी लाभ नहीं।" जसे कबीर ने फिर भी कहा है “मनुष्य के साथ-साथ तोता भी हरि का नाम लेता है, किंतु वह ईश्वर के प्रताप से अनभिज्ञ रहता है और यदि किसी प्रकार जंगल में फिर उड़कर चला गया तो उसे वह नाम विस्मृत भी हो जाता है।" . पण्डित बाद बदते झूठा । राम कहाँ दुनिया गति पावे, खाँड कह्याँ मुख मीठा । पावक कहाँ पाँव जे दाझे, जल कहि त्रिषा बुझाई ।