सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चतुर्थ अध्याय २३१ इस प्रकार के ज्ञान के विषय में, इसके सभी मानने वाले सहमत हैं। साधारण रूप से स्वीकार कर लिया जाता है कि ब्रह्मांड अर्थात् शब्द शरीर वा निरंजन तथा पिंड में न्यूनाधिक पूर्ण सादृश्य है । ईसाइयों की यह धारणा भी कि ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप रचा था, इसी दृष्टि से समझ में आ सकती है। मानव शरीर, प्रत्येक गूढ़ विद्याओं-द्वारा विश्व का सूक्ष्म रूप अथवा सूक्ष्म जगत माना जाता है और निर्गुण पंथ वालों का यह एक साधारण कथन हं "कि जो कुछ ब्रह्मांड में है, वह पिंड में भी है। तुलसी साहब ने कहा है कि "यह शरीर ही मसजिद है जिसमें चौदहों तबक विद्यमान हैं।"x परंतु इन चौदहों के अन्तर्गत निवले लोकों को भी गणना की गई है। ऊपरी लोकों के विषय में भी वे इसी प्रकार कहते हैं और उनकी संख्या आठ ठहराते हैं। "वे महल भीतर हैं जहाँ पर सन्त लोग विलास करते हैं । सन्त लोक, सत पुरुष का स्थान है जिसका ध्यान पूर्ण रूप से सुरति के साथ करना चाहिये सद्गुरु के लोक तक पहुँचने के लिए सप्त गगन को पारकर ऊपर जाना पड़ता है। नीचे के तीन लोक निगुण के निवासस्थान हैं।" + परंतु पिंड व ब्रह्मांड के इससादृश्य को भली भाँति समझने के पहले हमें परमात्मा के इस मंदिर के रहस्यमय व्यवच्छेद की भी एक धारणा ® जो पिंडे सो ब्रह्मांडें जानि, मान सरोवर करि असनान ।। ३२८ ।। क० ग्रं॰, पृ० १६६। x साँची मसजिद तन को नानो, जामें चौदह तबक समाना। 'घट रामायण' पृ० ८७ । + आठ महल अंदर के माँही, संत बिलास करें तेही ठाहीं । सत्तलोक सत पुरुष का, करे सुरति से ध्यान । सात मगन ऊपर चढ़े, जहं सतगुरु का अस्थान ।। 'रत्न सागर' पृ० १५ ।