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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३१९

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चतुर्थ अध्याय २३६ मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमन पोतन लागी। काम क्रोध भया पलीता, तहँ जोगण जागी।। क० ग्रं० पृ० ११०। अर्थात् अपयुक्त पुरुषो. अपना निवास गगन में कीजिये । अमृतरस चू रहा है और शाश्वत श्रानन्द उत्पन्न कर रहा है, बंकनाल वा सुषुम्ना उस अमृतरस से भरी जा रही है । मूल ( मूलाधार ) के केन्द्र को संकुचित करके तीर सुषुम्ना से होकर गगन अथवा त्रिकुटी तक पहुँच गया। काम एवं क्रोध का प्रभाव जाता रहा जब योगिनी (कुंडलिनी) जागृत हो गई। मनवा जाय दरीबे वैठा, मगन भया रसि लागा। कहै कबीर जिय संसा नहीं, सबद अनाहद बागा ।। क० ग्रं० पृ० ११० । अर्थात् मन दस द्वार तक पहुँचकर अमृतरस द्वारा सिक्त होकर बैठ गया । अब मुझे कुछ भी संदेह नहीं रह गया, क्योंकि अनाहद नाद बज चुका । उन्म नि चढ़या मगन रस पीवे ॥ ७२ ।। क० ० पृ० ११० । अर्थात उन्मन की दशा तक पहुँचकर वह मगन होकर अमृत का पान करने लगता है। गोरख सो जिन गोय उठाली करती बार न लागे । पानी पवन बधि राखे, चंद सुरज मुख दीये ।। 'गुरु ग्रंथ साहब' अर्थात् गोरख वह है जिसे गोप्य वस्तु के जान लेने में विलंब नहीं लगता और जो चन्द्र एवं सूर्य के संयोग द्वारा जीवनरस (वीर्य) एवं प्राणों को नियमित रखता