पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४० हिदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय ससिहर के घर सूर समावे, जोग जुगति की कीमत पाव । 'गुरु ग्रंथ साहब' अर्थात् जब सूर्य चन्द्र में प्रवेश कर जाता है, तभी योग की युक्ति का महत्व जान पड़ता है स्वास उसास बिचार कर, राखे सुरति लगाय । दया ध्यान त्रिकुटी धरे, परमातम दरसाय ।। प्रथम बैठि पाताल सू, धमकि चढ़े आकास । दया सुरति नटिनी भई, बाँधि बरत निज स्वास ।। सं० बा० सं० भाग १, पृ० १६६ । अर्थात् गंभीर एकाग्रता द्वारा अपने चित्त को श्वास-प्रश्वास में लगायो । दया कहती है कि त्रिकुटी में ध्यान लगाश्रो और परमात्मा के दर्शन हो जायेंगे , सुरति जागृत हुअा अात्मा नट के समान हो जाता है और श्वास-प्रश्वास की रस्सी पर चलने लगता है। यह पहले पाताल में प्रवेश करता है और तब गगन की ओर दौड़ता है। कबीर एवं गोरख के बीच शास्त्रार्थ का वर्णन करने वाले पद जिनमें गोरख की पराजय दिखलाई गई है और जो कबीर की रचना समझे जाते हैं अनैतिक्य का उदाहरण समझे जाते हैं और वे स्पष्टतः प्रसिद्ध हैं। किस प्रकार वे कबीर जिन्हें षटचक्र सोने के बने कमरे जान पड़ते हैं, जहाँ वस्तु सुरक्षित रूप में निहित है, गोरखनाथ का ऋण भूल सकते हैं ? उन्होंने गोरखनाथ, भर्तृहरि व गोपीचन्द की प्रशंसा स्वयं की हैं और कहा है कि वे विश्वचेतन के साथ मिलकर आनंदित बने रहते हैं। गोरखनाथ के निम्नलिखित उद्धरणों के साथ निर्गुण संप्रदाय के अनुयायी संतों की उक्त रचनाओं की तुलना करने पर पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जायगा कि ये लोग नाथ पंथ के कहाँ तक ऋणी थे