पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३२१

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चतुर्थ अध्याय २४१ ॐ आसन करि पद्मासन बंधि । पिछले आसन पवना संधि । मन मुछाचे लाव ताली । गगन शिखर में होय उजाली । प्रथम बैसि बा बंधि । पवना खेले चौसठि संधि । नव दरवाजा देवे ताली । गगन सिखर में होय उजाली । ऐसा भुअंगम जोगी. करे । धरती सोखि अम्बर भरे । गगने सुर पवने सुर तानि । धरती का पानी अम्बर आनि । ता जोगी की जुगति पिछानि । मन पवन ले उनमनि आनि । मन पवन ले उनमन रहे । तो काया गरजे गोरख कहे । 'आत्म बोध' पृ० २४१ । चंद सूर सम्य करि राखो आप आप जु मिलिया। वही पृ० २०० । नीझर झरै अमीरस पिवणा सटदल बेध्या जाई। चाँद विहूणा चाँदरणा देख्या गोरख राई । वही पृ० २२६। अर्थात् “ॐ पद्मासन पर बैठ जागो और तब श्वास की ओर ध्यान लगायो । मन को नष्ट कर उस पर ताला लगा दो । गगन शिखर प्रकाश दीख पड़ेगा। प्रथम प्रवेश बायें नथने से होता है और तब प्राण कुल चौसठों संधियों में खेलने लगता है । नवो द्वारों पर ताला लगा दो दसवें पर प्रकाश दीख पड़ेगा । योगी को तब ऐसे सर्प से काम लेना चाहिए जो धरती को सोख लेता (सबसे नीचे की ओर वर्तमान यौगिक शक्ति को खींच लेता) और आकाश को भर देता है। आकाश में स्थित स्वर को बाहर निकालो और धरती के जल को अाकाश तक पहुँचा दो। उस योगी की युक्ति को समझो, मन एवं प्राण को सम्बद्ध करके प्रति चेतन को जाग्रत कर देता है । गोरख कहता है यदि कोई मन एवं वायु को नियमित करके उनमन की स्थिति उत्पन्न कर देता है तो