चतुर्थ अध्याय २६३ संज्ञायंतन' जिसमें सभी कुछ न तो नामी रहता है और न अनामो ही होता है और 'संज्ञावेदयित्रो' जिसमें ज्ञाता-ज्ञान वा विषय-विषयी का अंतर नहीं रह जाता और दोनों एकाकार हो जाते हैं। इसी प्रकार सूको नासूत, मलकूत, जबरूत व लाहूत के नाम लेते हैं और इन्हें परवर्ती निगुणी भी अपने कुछ निम्नस्तरों की जगह स्थान देते हैं। आधुनिक खोजियों ने भी इस धारणा की पुष्टि को है। डगलसकासेद का यह कथन कि "ईश्वर जो हमारे विश्वक्रम के सारे चेतन प्राणियों का सर्वोच्च समान रूप है अपनी पृथक स्थिति रखता । इस विचार से कि वह एक विश्व विशेष का ही ईश्वर है और वह वस्तुतः उन सभी सचेतनों को अपने में सम्मिलित नहीं करता जो उसके अंग हैं। फिर भी एकता के लिए वा उसका काल्पनिक सिद्धि के लिए जो प्रत्येक विरोध के नष्ट होने पर उपलब्ध होती है, आंदोलन प्रत्यक्ष रूप में चलते रहते हैं। निश्चयपूर्वक उसी ओर संकेत करता है। किंतु कासेट जहाँ मोच को केवल सामूहिक समझते हुए जान पड़ते हैं वहाँ निगुणो इस बात को नहीं मानते कि व्यक्ति को अपनी मुक्ति के लिए तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी जब तक सारा समाज अपने को उसके लिए योग्य नहीं बना लेता । यह सच है , जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि, सर्वोच्च प्राध्यात्मिक अनुभव को प्राप्त करने के लिए किसी को जितनी स्थितियाँ आवश्यक होंगी उनकी संख्या उन पगों पर आश्रित है जिन्हें वह उस मार्ग पर बढ़ते समय रखता चल सकता है। और वह प्रत्येक साधक की योग्यता के अनुसार भिन्न-भिन्न होगी । हो सकता है कि एक साधक सम्पूर्ण मार्ग की कुछ ही सरणियों ( Stars) में तय कर ले जहाँ अन्य उसके अंत तक अनेक विश्रामों के अनंतर भी न पहुँच सकें । अतएव, एक के अनुभव को दूसरों से नीची श्रेणी का बतला देना उचित नहीं कहा जा सकता | चाहे उनकी स्थितियों को संख्या कितनी भी बड़ी क्यों न हो। यह कहने के लिए हमें कोई
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