सं० १९७६ में कानपुर के डी० ए० वी० कालेज से, एफ्० ए० कर पिया और आगे का भी अध्ययन चलाते रहने के उद्दश्य से कामी हिन्दू-विश्वविद्यालय में जाकर अपना नाम लिखाया। परन्तु इसी बीच में इनका स्वास्थ्य बहुत कुछ विगड़ गया और उसे सुधारने के प्रयत्न में, इन्हें, कुछ काल के लिए, अपनी पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी । ये, लगभग दो वर्षों के लिए, काशी से अपने गाँव पाली चले पाये और वहीं रहकर प्राकृतिक चिकित्सा का प्रयोग करने लगे। विद्यार्थी पीतांवरदत्त की प्रवृत्ति, श्रीनगर के स्कूल में विद्योपार्जन करते समय से ही कुछ लिखने-पढ़ने की ओर भी उन्मुख हो चुकी थी और कहा जाता है कि, वहाँ रहकर इन्होंने 'मनोरंजनी' नाम की किसी हस्तलिखित पत्रिका का संपादन भी किया था। उस समय ये वहाँ की साहित्यिक सभाओं में भी सक्रिय भाग लिया करते थे और, कानपुर आ जाने पर, इन्होंने वहाँ के 'हिलमैन' पत्र को संपादित किया था । तदनुसार इनका साहित्यिक कार्य, पाली गांव में रहते समय भी निरंतर चलता रहा और, अपने अध्ययन व अनुभवों के अनुसार, इन्होंने कुछ अंग्रेजी पुस्तकों के आधार पर, 'प्राणायामविज्ञान' और कला तथा 'ध्यान से आत्मचिकित्सा' नामक दो पुस्तकें लिख डाली । अपने प्रांत के सार्वजनिक जीवन में जागृति लाने के उद्देश्य से इन्होंने ‘गढ़वाल नवयुवक सम्मेलन' की स्थापना की और समय-समय पर सर्वसाधारण की महायता के लिए भी प्रशंसनीय कार्य किये। उस समय ये वहाँ के स्थानीय पत्र 'पुरुषार्थ' में भी बहुधा लिखा करते थे और अपनी कवि- ताओं को प्रकाशित करते समय अपना उपनाम 'अम्बर' अथवा 'व्योमचन्द्र' दिया करते थे। घर पर उक्त प्रकार से स्वास्थ्य-सुधार कर लेने के अनन्तर.ये फिर काशी-हिंदू-विश्वविद्यालय चले आये और वहीं रहकर पढ़ने लगे। वहाँ से इन्होंने, बी० ए० की परीक्षा पासकर सं० १९८५ में एम्० ए.०
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