" "३१४ हिन्दी काव्य में निगण संप्रदाय मिशन का प्रधान ऐतिहासिक परिचय हमें उन ईरानियों द्वारा मिलता है जो मनीची ( Manichaens) कहे जाते थे।* परंतु मनीची भी भारत में उत्साही मिशनरियों के रूप में आये हुए नहीं जान पड़ते । ये कठोर अत्याचार के कारण अपना देश छोड़कर भागनेवाले शरणार्थियों के रूप में हो आये थे। यह तो स्वाभाविक है कि इन मनीचियों ने अपने मत का प्रचार इस नवीन मातृभूमि में करने का प्रयत्न अवश्य किया होगा। परंतु इस बात का पता नहीं चलता कि इन 'ईसाई' विधर्मियों ने, जिन पर ईसाई देशों में भी अत्याचार किये गये थे, भारत की ओर कभी बढ़े भी थे। जो हो, मयलापुर की ईसाई बस्तियों के विषय में जहाँ तक पता है, (और वही स्थान उपर्युक्त प्रथम मत की प्रधान आधारशिला है तथा उसी के साथ मनीचियों का. मूलतः, संबंध भी रहा होगा ) "उनमें किसी ऐसी बस्ती का होना सिद्ध नहीं होता जिसमें किसी बड़े धार्मिक आंदोलन को उत्तेजित करने का सामर्थ्य रहा हो।" Vऐकांतिक धर्म, जिसे मैंने, इस पुस्तक के प्रथम अध्याय में, वैष्णव- भक्तिवाद का मूलस्रोत बतलाया है, इन ईसाई बस्तियों के उन अवशेष चिह्नों से निःसंदेह कहीं पुराना है जिनका समय प्राचीन इतिहास के जानकारों ने ईसा की सातवीं शताब्दी में निश्चित किया है। आगे चलकर ऐकांतिक धर्म के केंद्रबिंदु बन जानेवाले कृष्ण का भो समय निश्चित रूप से ईसा को शताब्दी से प्राचीन है। 'इंडियन ऐंटिक्वेरी' १८७४) में प्रकाशित एक निबंध द्वारा डा० भांडारकर ने बतलाया है कि ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी की रचना पतंजलि के 'महाभाष्य' में कृष्ण की कथा -'इंडियन ऐंटिक्वेरी' (१८७४) पृ. ३०८-३१६ ( डा० बर्नेल का लेख)। 1-कार्पेन्टर 'थीज्म इन मिडीवल इंडिया', पृ० ५२४ ।
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