पंचम अध्याय ३१५ के प्रसंग मिलते हैं और उनसे पता चलता है कि उस समय के बहुत पहले कृष्ण ने कंस को मारा था तथा पतंजलि के समय में वे एक देवता की भाँति पूजे भी जाते थे। मैं यहाँ पर वहाँ से केवल दो ही उदाहरण दूंगा। पतंजलि इस बात को उदाहृत करते हैं कि किस प्रकार जब कोई घटना बहुत पहले घटी रहती है तो भी, उसका उल्लेख सभी कालों ( भूत, भविष्यत् व वर्तमान ) में किया जा सकता है। जैसे 'कंस वध' को कथा का रंगमंच पर अभिनय करते समय, उपयुक्त अवसरों पर यह कहा जा सकता है "चलो, कंस का वध हो रहा है" "चलो, कंस मारा जानेवाला है" "जाने से क्या लाभ, कंस का वध तो हो चुका है"* इसके सिवाय, पाणिनि को रचना में दो सूत्र आये हैं जिनमें के अनुसार यौगिक शब्द बनाते समय क्षत्रियों के नामों के साथ 'वन' वा 'अक्' प्रत्यय लगना चाहिए और दूसरे के अनुसार 'वासुदेव' तथा 'अर्जुन' नामों के आगे उन्हें उन व्यक्तियों के भक्त, अनुयायी या पूजक का अर्थ व्यक्त करनेवाली संज्ञा बनाते समय जोड़ना चाहिए। वासुदेव नाम यहाँ पर एक क्षत्रिय का है और इसके लिए किसी वैसे नये नियम की आवश्यकता नहीं थी। किंतु यहाँ पर पतंजलि का तर्क यह है कि यह नाम केवल एक क्षत्रिय का ही नहीं प्रत्युत एक ईश्वरीय महापुरुष का भी है ।+ हमें इस बात के लिए मेगास्थिनिज़ का भी प्रमाण मिलता है कि कृष्ण की पूजा ईसा के पूर्व चौथो शताब्दी में भी हो रही थी। ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी में भागवत धर्म में इतना सजीव श्राकर्षण था कि विदेशी तक उसे स्वीकार कर लेते थे। से एक
- -'महाभाष्य' ३-१-२६ ।
+-वही, ४-३-१६। -वही, ४-३-६८। -'इंडियन ऐंटिक्वेरी' (१८७४) पृ० १६ ।