पंचम अध्याय इसे कोई स्थूल प्रदेश ही माना जाय तो, नारायणीयधर्म के प्राचीनतम पोठ, बदरिकाश्रम का नाम, इसका पता लगाते समय, लिया जो सकता है, क्योंकि वही हिम का श्वेतदेश वा श्वेतद्वीप भी कहा जा सकता है। इस प्रकार जो बातें कबीर को वैष्णव संप्रदाय द्वारा मिली थीं उनमें ईसाई धर्म के प्रभाव का कोई भी चिह्न नहीं है। यह भी नहीं जान पड़ता कि स्वयं कबीर भी कभी ईसाई विचारों के संपर्क में पाये थे। यदि कबीर कभी ईसाई धर्म के संसर्ग में आये होते तो निश्चय ही वे इसे उसी प्रकार खुले हृदय से स्वीकार करते जैसा एक अन्य निर्गुण प्राणनाथ ने, इसके संपर्क में आकर आगे चलकर किया। प्राणनाथ की रचनाओं में बाइबिल के साथ किसी न किसी प्रकार का ऐसा परिचय सूचित होता है जिसने उन्हें इस परिणाम तक पहुँचा दिया कि, यह सत्य केवल ईसाई धर्म के लिए ही अपवाद नहीं कि सभी धर्म मूलतः सत्य हैं और सभी का लक्ष्य भी एक ही है। इसलिए यह बात निर्विरोध रूप से मानी जा सकती है कि निर्गण पंथ एक विभाजक धारा थी जो वैष्णव संप्रदाय के स्रोतों से फूट निकली थी और जिसके साथ कुछ ने कुछ अन्य स्रोतों का भी जल मिश्रित होता गया था। प्रत्यक्ष है कि ये दूसरे स्रोत इस्लाम धर्म न सूफी संप्रदाय के थे। अब हम उस उपयुक्त प्रश्न को एक बार फिर भी उठा सकते हैं जिसे लेकर हमने प्रारंभ किया था-क्या निर्गुण पंथ कोई निश्चित संप्रदाय है ? वस्तुतः क्या कबीर केवल एक सारग्राही धर्मोपदेशक थे। हमने देखा है कि पंथ किस प्रकार उस विकास-परक नियम का परिणाम था जो बहुत प्राचीन समय से चला आ रहा था। परंतु यह विकासपरकं नियम भी कतिपय व्यक्तियों की ही सहायता से आगे बढ़ सकता थी। यदि प्राचीनतम स्रोतों एवं निर्गुणपंथ के माध्यम बननेवाले व्यक्तियों को हृदय सभी प्रकार के कल्याणकर प्रभावों के लिए खुला न रहा होता तो
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