पंचम अध्याय ३२३ भी केवल मनकों की गिनती मात्र हो गया। कई ऐसे पंथों में वर्ण- व्यवस्था भी स्वीकृत कर ली गई है। गरीबदास-द्वारा प्रचलित किये गये पंथ में केवल द्विज ही दीक्षित किये जाते हैं। अन्य पंथों में भी सामाजिक साम्य के श्रादर्श के प्रति केवल मौखिक भक्ति का ही प्रदर्शन हुआ करता है।
- परिस्थतियों का विपरीत प्रभाव तो यहाँ तक पड़ा है कि जिन
विधियों के प्रवर्तकों का कभी ध्यान तक न गया होगा उन्हें उनके नामों पर प्रचलित कर दिया गया है। उदाहरण के लिए ऐसी एक विधि 'गायत्री क्रिया' कहलाती है जिसका कोटवा के सत्तनामियों में प्रचार है और जिसमें मानव शरीर के मलों से तैयार किये गये एक मिश्रण के पीने का विधान है। इस प्रकार की विधियाँ उन प्रभावों का परिणाम हैं जो पक्षमार्ग-द्वारा बाहर से घुस आई हैं और जिनके विषय में हम श्रागे भी कुछ चर्चा करेंगे । जान पड़ता है कि उक्त विधि उस अघोर- पंथ की देन है जिसमें ऐसी विधियाँ इस कारण बरती जा रही हैं कि उनके द्वारा हम अपनो इंद्रियों को उनसे घृणित कर्म भी कराकर बिना उद्विग्न हुए वश में ला सकें। इसमें संदेह नहीं कि इंद्रियों को शक्ति- हीन बनाने अथवा उन्हें बलपूर्वक दबाने जैसे कठोर नियमों के तुल्य होने के कारण, यह भी निर्गुणपंथ के श्रादर्शों के प्रतिकूल है और इसी कारण सत्तनामी संप्रदाय की कोटवा शाखा के प्रवर्तक जगजीवन- दास को बानियों में हमें इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता । परन्तु यह बात हम राधास्वामी संप्रदाय के उस आदेश के विषय में नहीं कह सकते जिसमें गुरु की पीक पी जाने की व्यवस्था दी गई है। 1-फर्कुहर 'आउट लाइन्स आफ दि रिलीजस लिटरेचर आफ इंडिया' । पृ० ३४५।
- -वही, पृ० ३४३॥
+-फिर सब पीक आप पी जावे- 'सारवचन' भाग १ ० २३५ ।