हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय और न उनकी उस विधि के सम्बन्ध में ही कहा जा सकता है, जिसमें गुरु की जूठन वा उच्छिष्ट पदार्थों से बने हुए 'जोत प्रसाद'को प्रसाद- बत् ग्रहण किया जाता है। इसी प्रकार की एक विधि वह भी है जो कबीर-पंथियों में प्रचलित है जिसमें गुरु के चरण धोये हुए जल वा 'चरणामृत' ४ का पान किया जाता है अथवा जिसमें कहीं-कहीं वह जल ही रहा करता है जिससे नोवित गुरु के स्थान पर कबीर की धुली काल्पनिक काष्ठ पादुकाओं का ही जल रहता है अथवा वे गोलियाँ रहती हैं जो इस प्रकार के चरणोदक-द्वारा गूंधी हुई मिट्टी की बनी होती हैं। इन विधियों का प्रारम्भ गुरु को प्रदान किये गये महत्त्व के ही कारण हुआ था। गुरु का चरणोदक, उसकी जूठन और उसका थूक तक पवित्र समझे जाते हैं। हाँ गुरु के व्यक्तित्व को इतना पवित्र माननेवाले अकेले निर्गुण-पंथी ही नहीं हैं । इसी प्रकार हिमालय की पहाड़ियों के डोमों में यह विधि प्रचलित चली आती है कि वे निरंकार के नाम पर सुअरों का बलिदान किया करते हैं और कहते हैं कि इस प्रथा का प्रारम्भ कबीर के जीवन की किसी पौराणिक घटना से हुआ था। इस विषय के उपाख्यान का सारांश यह है कि एक बार कबीर ने निरंकार के लिए एक टोकरी अन्न और दो नारियल उपहार के स्वरूप में देना चाहा और निरंकार उसे लेने के लिए स्वयं कबीर के घर पर लंगड़े भिखारी के भेष में उस समय पहुँचे जब ये किसी संदेश के प्रचारार्थ कहीं बाहर गये हुए थे। भिखारी ने कबीर की स्त्री से भीख माँगी। किंतु उसने कहा कि मेरे घर में सिवाय उस एक टोकरों अन्न तथा दो नारियल के और कुछ नहीं है, जो निरंकार x--हिन्दुओं के यहाँ उस चरणोदक का महत्व है जिसमें मूत्ति, पुरो- हित वा अतिथि के चरण धोये जाते हैं परन्तु जो अधिकतर किसी देवमूर्ति' का ही चरणामृत होता है ।
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