३२६ हिन्दी काव्य में निगुगा संप्रदाय निर्गुणमत पर आश्रित होने पर भी इनमें से प्रत्येक संप्रदाय को इस बात के लिए कोई न कोई चिह्न धारण करना पड़ता है जिससे वे एक दूसरे से भिन्न समझे जा सकें । उदाहरण के लिए कबीरपंथी अपने ललाटों पर सीधी रेखाएँ धारण करते हैं, सत्तनामी अपनी कलाइयों पर धागे बाँधते हैं और सिख अपने पाँच ककारों का पालन करते हैं जिनमें से 'केश' का अर्थ लम्बे बालों का रखना 'कंधा' से अभिप्राय उसपर कंधे का धारण करना, 'कटार' का अर्थ कटारी को लटकाये रहना, 'कड़ा' से लोहे का एक कड़ा पहनना तथा 'कछ' से एक जाँघिये का धारण करना है, इन निर्गुणपंथियों में से कुछ का इस बात के लिए प्रयत्न करना कि अन्य ऐसे पंथों को पराजित करें और उनके अनु- याथियों को अपनी ओर आकृष्ट करें, उनकी इसी सांप्रदायिक भावना का द्योतक है जिसे अधिकांशतः निर्गुणमत पर आश्रित रहते हुए भी उन्होंने उस आध्यात्मिक दृष्टि को खोकर अपनाया था जिसके बलपर उनके पंथों के मूलप्रवर्तक इतने बड़े उदार महापुरुष हो सके थे । इन मूलतः आध्यात्मिक पंधों के इस प्रकार गिर जाने का कारण यह था कि इनकी आध्यात्मिक अनुभूति के क्षेत्रों में व्यक्तिगत विशेषताओं का प्रवेश हो गया और उक्त अनुभूति को स्पष्ट करने के लिए रूपकों से भरी भाषा का प्रयोग करना भी आवश्यक समझा जाने लगा। यदि कोई मनुष्य सत्य का ज्ञान उपलब्ध करना चाहे तो अन्तिम सत्ता का अनुभव करना ही पड़ेगा। बिना ऐसे अनुभव के कोई भी आध्यात्मिक रूपकों का रहस्य नहीं समझ सकता । जब तक वह महापुरुष, जिसके अनुसरण में संप्रदाय उदय होता है, जीवित रहकर अनुयायियों का नेतृत्व करता तथा उन्हें उपदेश देता है तब तक वह संस्था अपने आध्यात्मिक रूप में उन्नति करती जाती है, किंतु उसका देहांत होते ही वह उग्रता धारण करने लगती है । रूपकता का महत्व जाता रहता है और उसका स्थान शुष्क कर्मकांड लेने लगता है। उदाहरण के लिए कबोर के समझे जानेवाले इस वर्णन को ही
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