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- ३७ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय
'उसकी व्याख्या को है।" उनका प्रेम जैसा कि हम व्यवहार में भी पाते हैं, खोज के उस सच्चे मार्ग का प्रतीक है जिसकी परिपुष्टि इंद्रिय- वृत्तियों द्वारा हुश्रा करती है। कबीर कहते हैं कि, “ह सखी, प्रियतम के साथ मिलने के लिए उत्कंठित हो रही हूँ। मेरे यौवनकाल में विरह मुझे सता रहा है और मैं अब ज्ञान को गली में इठलाती हुई चल रही हूँ, जहाँ पर मेरे सतगुरु ने मुझे उस प्रियतम का प्रेमपत्र भी दे दिया है I+" कबीर. ने एक दूसरे स्थल पर भी कहा है कि, "प्रियतम के मिलन की चाह पर ही सब कुछ प्राश्रित है। मैं तो चाह का ही दास हूँ।" तथा "वह उस चाह के ही आनन्द में मग्न रहा करता है।" आध्यात्मिक अनुभव की अनिर्वचनीयता के कारण साधक को कभी- कभी परस्पर विरोधी उक्तियों-द्वारा व्यक्त करने का ढंग अपनाना पड़ता है जैसे चन्द्रविहीन चाँदनी, सूर्यविहीन सूर्य प्रकाश, ४. उल्टवासियाँ श्रादि और इसके आधार पर ऐसे गूढ़ प्रतीकों की सृष्टि हो जाती है जिन्हें 'उल्टवासी' वा 'विपर्यय' कहते हैं । जब सत्य की अभिव्यक्ति बिना इन परस्पर विरोधी कथनों के सहारे, नहीं हो पाती तो, उसे आवश्यक सत्याभास कह सकते हैं। किंतु कभी-कभी इन उल्टवासियों का प्रयोग अर्थ को जान बूझ कर , 1--तुम जिनि जानो यह गीत है, यहु निज ब्रह्म बिचार रे । केवल कहि समझाइया, आतम साधन सार रे ॥ वही, पृ० २६१, पद ५। +-सखियो हमहूँ भई बलमासी । आयो जोवन विरह सतायो, अब मैं ज्ञान गली अठिलाती । ज्ञान गली में सतगुरु मिलिगे, दई पिया की पाती । कबीर शब्दावली, भा० १, पृ० १० ।
- --रवींद्रनाथ ठाकुरः 'सांग्स अाफ़ कबीर', पृ० ६६ ।
वही, पृ० १००।