षष्ठ अध्याय छिपाने के लिए भी हुआ करता है जिससे आध्यात्मिक मार्ग के रहस्यों का पता अयोग्य व्यक्तियों को न लगने पावे अथवा, यदि 'बाइबिल' के शब्दों में कहा जाय तो मोती के दाने सुअरों के आगे न बिखेर दिये जाय । ऐसो उल्टवासियों को जानबूझ कर रची गई उल्टवासियाँ कह सकते हैं। साधारण प्रकार से आध्यात्मिक साधनाओं को ही ऐसी उल्टवासियों में स्पष्ट किया जाता है। उक्त पहले प्रकार की उल्टवासियाँ सांकेतिक होती हैं जहाँ दूसरी का स्वरूप रहस्यमय हुआ करता है। इसमें सन्देह नहीं कि सांकेतिक उल्टवासियों में उच्च श्रेणो का काव्य रहा करता है। किंतु, गुह्य उल्टवासियाँ स्वभावतः काव्यगत सौंदर्य से हीन हुश्रा करती हैं। काव्य की विशेषता इसी बात में है कि उसके द्वारा जीवन के गूढ़तम रहस्यों का वक्तीकरण हो, उनका गोपन उसका उद्देश्य नहीं है। परन्तु इस प्रकार के प्रयोगों का यदि उचित ढंग से उपयोग किया जाय तो इनके द्वारा उसके अभिप्राय के लिए श्रोता के हृदय में बलवती उत्कंठा जाग्रत की जा सकती है और उसका अर्थ लग जाने पर उसके ऊपर आश्चर्य का एक ऐसा सुखद प्रभाव पड़ सकता है कि वह उसे ग्रहण करने के लिए अन्य किसी प्रकार से भी अधिक उद्यत हो जाता है। इसके उदाहरण में हम निम्नलिखित पद्र उद्धृत कर सकते हैं । कबीर ने कहा है कि, “हे अवधू. जो लोग नाव पर चढ़े ( भिन्न-भिन्न इष्टदेवों का आधार लेकर बढ़े ) वे समुद्र में डूब गये ( संसार में ही रह गये ), किंतु जिन्हें ऐसा कोई भी साधन न था वे पार लग गये ( मुक्त हो गये )। जो बिना किसी मार्ग के चले वे नगर (परमपद ) तक पहुँच गये, किन्तु जिन लोगों ने मार्ग ( अंध- विश्वासपूर्ण परंपराओं ) का सहारा लिया वे लूट लिये गये ( उनके आध्यात्मिक गुणों का हास हो गया)। ( माया के) बन्धन में सभी बँधे हुए हैं; किसे मुक्त और किसे बद्ध कहा जाय । जो कोई उस घर (परमपद ) में प्रविष्ट हो गये उनके सभी अंग भीग गये वे ईश्वरीय प्रेमरस से सिक्त हो गये ), किंतु जो बाहर रह गये (जो उससे प्रभावित ,