पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४५४

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.३७२ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय न हो सके) वे पूर्णरूप से सूखे हैं ( उससे वंचित हैं)। वे ही सुखी हैं जिन्हें बाण लग गया है ( जो सतगुरु के वचनों द्वारा प्रभावित हो चुके हैं अथवा जिनके भीतर श्राध्यात्मिक विरह जाग्रत हो चुका है) और अभागे वा दुखी वे हैं जिन्हें उसकी चोट नहीं लग सकी। अन्धे लोग (जिनकी आँखें संसार की ओर से बन्द हैं ) सभी कुछ देखते हैं, किन्तु आँखवाले ( सांसारिक मनुष्य ) कुछ भी नहीं देख पाते *" और फिर, "हे मेरे स्वामी, बिना मांस लिये मत आना, न तो जीवित को मारना और न मृतक (आध्यात्मिक दृष्टि से निर्जीव ) को ही लाना । उस मांसवाले शरीर में न तो वक्षस्थल होना चाहिए, न खुर चाहिए, न पीठ चाहिए और न वास्तव में, शरीर की रूपरेखा ही चाहिए। फिर भी ऐसा सावज न पाना चाहिए जिसमें मांस व रक्त का अभाव ही हो । उस दूसरे वाले ब्याध ( परात्पर ब्रह्म ) के पास अपने धनुष में कोई तोर नहीं है । हिरन भी बिना शिर के है, किंतु वह लता की ओर (माया के प्रति) आकृष्ट रहा करता है । कबीर कहते हैं कि यह गुरु का ही कौशल है जिससे उक्त सावज (संसार की ओर से) मारा गया होने पर भो ( श्राध्यात्मिक दृष्टि से ) जीवित रूप में वर्तमान है। हे स्वामी, तुम्हारे साथ मिलन को अभिलाषा में मैं बिना पत्तों को लता -अवधू ऐसा ग्यान विचारं । भेरै चढ़े सु अधधर डूबे, निराधार भये पारं ।। टेक ॥ ऊघट चले सुनगरि पहूँत, बाट चले ते लूटे । एक जेवड़ी सब लपटानें, के बाँधे के छूटे ।। मंदिर पैसि चहूँ दिसि भोगे, बाहरि रहे ते सूका। सरि मारे ते सदा सुखारे, अन मारे ते दूष। ।। बिन नैनन के सब जग देख, लोचन अछते अंधा। कहे कबीर कछु समझि परी है, यह जग देख्या धंधा ॥ १७५ ।। क० ग्रं॰, पृ० १४७ ।