षष्ठ अध्याय बना हूँ।*" सुंदरदास ने भी इसी प्रकार कहा है कि, "चींटी ( जीवात्मा ) ने हाथी ( वस्तुतः विस्तृत संपार वा माया) को निगल लिया है और शृगाल ने सिंह को खा लिया है। मछली ( आत्मा) को ( ज्ञान की ) भाग में ही सुख मिल रहा है; यह पानी (माया ) में ही बेचैन थी। लँगड़ा (अधिक एकाग्रचिस होने के कारण अपनी इंदियों का प्रयोग त्याग कर) पहाड़ी पर आत्मानुभूति की उच्च दशा तक ) पहुंच गया है । मृत्यु ( संसार की ओर से मर गये ) मृतक से भयभीत हो रही है । सुंदर का कहना है कि, जिसे अनुभव होता है वही ऐसी बानी का रहस्य जान सकता है । अब आइये, शिवदयाल साहिब से भी एक उदाहरण लें। इनका कहना है कि, गुरु ने मुझे एक आश्चर्य का खेल दिखजा दिया। मुझे एक घड़ा बहुमूल्य रत्नों से भरा मिल गया । मक्खी ने (आत्मा ने ), मकड़ो (आत्मा) को खा -जीवत जिनि मारै मूवा मति ल्यावै, मासविहूंणां धरियत आवै हो कंता ।। टेक । उर बिन पुर बिन चंच विन, वपु विहूंना सोई । सो स्यावज जिनि मारै कंता, जाकै रगत मास न होई ॥ पैली पार के पारधी, ताके धुनही पिनच नहीं रे । तावेली को ढूंक्यौ मृगलौ, तामृग के सीस नहीं रे ॥ मार्या मृग जीवता राख्या, यह गुर ग्यान मही रे । कहै कबीर स्वामी तुम्हारे मिलन कौं,बेली है पर पात नहीं रे ॥२१२।। क० ग्रं॰, पृ० १६० । 1-कुंजर कीरी गिल बैठी, सिंघहि खाइ अधानो स्याल । मछरी अग्नि हिं सुख पायो, जल में बहुत हुती बेहाल । पंमु चढ़ यो परवत के ऊपर, मतकहिं डेरानै काल । जाका अनभव होय सो जानें, सुंदर उलटा ख्याल ।। पौड़ी हस्तलेख, पृ० ३२३ ।
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