पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४५६

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३७४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय लिया । भुनगे ( सूक्ष्म शरीर ) ने पृथ्वी को तोल दिया ( भौतिक सत्ता मात्र से ऊपर उठ गया ), बस्तो (प्रात्मा ) का परिणय जंगल (भौतिक पदार्थों ) से होता था किंतु वह सारे विश्व ( पदार्थों) को निगल गई। भाग ( माया ) पानी ( अमृत वा प्राध्यादिमकतत्त्व ) को सुखा रही थी, किंतु अब बिल्ली ( मृत्यु ) चूहे ( अात्मा) के भय से भाग रही है। कौवा (चित्त) मधु स्वर में गाने लगा ( उसने श्राध्यात्मिक प्रवृत्ति ग्रहण कर लो और मेढ़क (आत्मा) अब समुद्र ( क्षुब्ध पदार्थों ) को तोल रहा ( उनके ऊपर उठता जा रहा ) है । चतुर व्यक्ति ( काल) मूर्ख ( वहिर्मुख चित्त जो अब अंतर्मुख हो गया है) के सामने हार मान चुका है और श्राकाश । षटचक्र ) धरती में रह कर (शरीर में रहते हुए) पुकारने लगा है। राधास्वामी उल्टवाँसी गा रहे हैं और उल्लू ( प्रात्मा ) को सूर्य ( परमात्मा ) के दर्शन करा रहे हैं। *" किंतु किसी भी अभिप्राय को जब चाहे तभी कठिनतापूर्वक समझ में आनेवाली परस्पर विरोधी बातों में छिपा देने की दूषित प्रवृत्ति स्वभावतः घृणित सिद्ध होने लगती है। ऐसी गद्य उल्टवासियों के सम्बन्ध में कठिनाई इस बात से भी बढ़ जाती है कि भिन्न-भिन्न रूपकों ezi . '-गुरु अचरज खेल दिखाया । स्रुत नाम रतन घट पाया ।। चींटी चढ़ गगन समाई । पिंगुल चढ़ पर्वत प्राई ।। गूगा सब राग सुनावै । अंधा सब रूप निहारे ।। मक्खी ने मकड़ी खाई । भुनगे ने धरन तुलाई ।। धरती सब खिल्कत खाई । जंगल में बस्ती ब्याही । मूसी से बिल्ली भागी । पानी में अग्नी लागी ॥ कउवा 'धुन मधुरी बोले । मेंडक अब सागर तोले ॥ मूरख से चतुरा हारा । धरती में गगन पुकारा ॥ राधास्वामी उलटी गाई । उल्लू को सूर दिखाई ॥ सारवचन, भा॰ २, पृ० ४५०-२। ,