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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४६५

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परिशिष्ट २.. ३८३ १० वा शब्द वषना का माना जाता है और उसका "कोइ राम रसिक पियहुगे' से प्रारंभ होनेवाला २० वाँ शब्द, रजबदौस की सर्वाङ्गी, अनुसार स्वामी सुखानंद का समझा जाता है। पहला शब्द वषना की 'बानी' में भी संग्रहीत है। कुछ साखियाँ भो जो आज कबीर की कही जाती हैं वास्तव में वषना की हा रचनाएँ हैं जैसे “सत्त नाम स्ति औषधी, सतगुरु दई बताय । औषधि खाय रु पथ रहि ताका वेदन जाय ॥" (संत बानी संग्रह भा० १, पृ० ५, सा० १२ ) श्रादि । संत साहित्य की एक विशेषता यह है कि उसमें अन्य किसी की रचनाओं को अपना बतलाने के उदाहरणों का सर्वथा अभाव दीख पड़ता है। पिछले खेवे के संतों का यह अपराध हो सकता है कि उन्होंने अपने शब्दों को अपने पूर्ववर्ती संतों के मुख से कहला दिया है, किंतु इनकी रचनाओं को इन्होंने कभी अपना नहीं कहा। सुखानंद कबीर के 'समकालीन व गुरुभाई थे और इनसे कम प्रसिद्ध भी थे। उनकी रच- नाएँ, इसी कारण, कबीर की कहला सकती हैं, किंतु कबीर की, उनकी नहीं कहना सकतीं। विद्वानों का कथन है कि 'बोजक' वाला संग्रह कबीर के जीवन काल में प्रस्तुत नहीं हुआ था। वेस्टकाट साहब का अनुमान है कि इसका संपादन सर्वप्रथम संभवतः सन् १९७० ई० में सिखों के आदि ग्रंथ का संपादन होने से २० वर्ष पहले, हुआ होगा किंतु यह अनुमान हो अनुमान है और इसके लिए कोई भी प्रमाण नहीं कि यह ग्रन्थ 'श्रादि- अन्य अथवा रजबदास की 'सर्वांगी' से प्राचीन है। भाषाशास्त्र के नियमानुसार तो ऐसा प्रतीत होता है कि 'आदि ग्रन्थ' 'बीजक' से प्राचीन है । दादू कबीर के वचनों को सत्य मानते थे और दादूपंथियों ने भी इसी कारण, उनकी रचनाओं को बड़ी श्रद्धा के साथ देखा है। वषना व रजबदास दोनों ही दादू के शिष्य थे 'रचनाएं बड़ी सावधानी के साथ लिखी गई थीं और इसके लिए सदेह करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती कि उनमें क्षेपक भरे हुए हैं, हाँ, । दादू पंथियों की