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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४६६

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हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय यह बात, कदाचित् स्वयं दादू की रचनाओं के संबन्ध में भी इसी प्रकार न कही जा सके। मैं इसीलिए, समझता हूँ कि 'बोजक का वर्तमाग संग्रह बषना ( लगभग सन् १६०३ ई०) के अनन्तर ही, किया गया था और पूर्णरूप से प्रामाणिक नहीं है। फिर भी इसके अंतर्गत संगृहीत अधि- कांश पद्य सदोष स्मरणशक्ति के कारण बहुत कुछ परिवर्तित होते हुए भी, कबीर की ही रचनाएँ हैं। 'बीजक' के बहुत से संस्करण हैं जो, सिवाय इसके कि उसके भिन्न अंशों के क्रम में कुछ अंतर हो वा साखियों की संख्या में कमी-बेशी हो, परस्पर भिन्न-भिन्न नहीं जान पड़ते । किंतु, पूरनदास का संस्करण ही आज-कल अधिक प्रचलित है और यही, संभवत: 'बीजक' का सबसे प्राचीन रूप भी है। हाँ 'आदिमंगज' व 'प्रीतम अनुसार' मूलग्रन्थ के अंरा नहीं माने जाते। प्रो० श्यामसुन्दरदास-द्वारा संपादित 'कबोर-ग्रन्थावली' एक अन्य ग्रन्थ है जो इस क्षेत्र में प्रामाणिक समझे जाने का गंभीर दावा करता है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें उस सांप्रदायिक कृत्रिमता का अभाव है जो भिन्न-भिन्न संप्रदायों द्वारा प्रकाशित की गई अनेक रचनाओं में बहुधा पाई जाती है । और इसमें संगृहीत पद्यों का उन बानियों के साथ पूरा मेज भी खा जाता है जो दादूपंथियों की 'पंचबानी' में सुरक्षित हैं। दादूपंथ के प्रवर्तक दादूदयाल, कबीर के शब्दों को पूर्णतः सत्य मानते थे । 'श्रादिग्रंथ,' के अनेक पद इस संग्रह में प्रायः उसीरूप में पाये हैं और इस 'ग्रंथावली' तथा 'बीजक' में भी बहुत कुछ समानता दोख पड़तो है। यद्यपि 'बीजक' के साधारण ---'प्रादि ग्रन्थ' में संगृहीत २४० साखियों व २२७ पदों में से 'कबीर ग्रन्थावली, के अंतर्गत केवल १०६ साखियाँ और ६५ पद पाये हैं। --एक 'वसंत' को लेकर २५ पद, 'ज्ञान चौंतीसी' ( वा ग्रन्थावली की 'ख' प्रति के अनुसार ( ककहरा ) का लगभग पूर्वाद्ध, प्रायः