पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४६७

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परिशिष्ट २,. ३८५ पद्यों में पाठभेद भी पाया जाता है। इस संस्करण के शब्दों के रूप अन्य किसी भी संग्रह की अपेक्षा अधिक प्राचीन हैं और कबीर के समय की भाषा-सम्बन्धी प्रवृत्तियों के अनुकूल भी जान पड़ते हैं । यह शैली उन दोहों वा साखियों में अधिक प्राचीन दीखती है जो अपभ्रश के अपने छंदों में रची गई हैं। पदों वा रमैनियों में इसका प्रभाव लक्षित होने के कारण यह नहीं सिद्ध होता कि साखियाँ ही कम प्रामाणिक, मानी जा सकती हैं। कुछ समालोचकों की भाँति इन पर राजस्थानी व पंजाबी का प्रभाव स्वीकार कर लेने की अपेक्षा, यही अधिक ठीक होगा कि इनकी भाषा को उस समय की प्रचलित सधुक्कड़ो भाषा मान लिया जाय। इन प्राचीन रूपों व शब्दों में से कुछ अाज भी राजस्थानी में तथा कुछ अन्य पंजाबी में पाये जाते हैं। इस बात के लिए प्रमाण है । जैसा कि ग्रंथावली के पृ० ७७ की पादटिप्पणी ५ से भी पता चलता है ) कि कबीर को पूर्वी बोली को उस समय के लोग 'अस्पष्ट' बतलाया करते थे और हो सकता है कि इसी कारण उन्होंने सर्वत्र समझी जाने योग्य भाषा का ही व्यवहार किया हो। इस भाषा का उस प्रकार प्रयोग करनेवाले केवल कबीर ही नहीं थे। उन्होंने इस बात में उस परम्परा का हो अनुसरण किया था जिसे अनेक योगी कवि पहले से ही अपनाते आ रहे थे। कबीर गोरखनाथ के बहुत दूर तक ऋणी थे और उन्होंने इनकी न 1 ३८ साखियाँ और बहुत सो रमै नियाँ दोनों में एक समान हैं। 'बोजक' की रमै नियाँ असंबद्ध जान पड़ती हैं किंतु 'ग्रन्थावली' की रमंनियाँ क्रमानुसार हैं। रमै नियों के एक समान अंश भी 'बीजक' में असंगत से हैं, किंतु वे ही 'ग्रन्थावली' में आकर अपने-अपने उचित स्थानों पर संगृहीत दीख पड़ते हैं। -दे० 'हिंदी काव्य में योगप्रवाह' नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग ११ पृ० ३८५-४०५।