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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४७

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विस्तृत आलोचना भी कर दी गई होती तो बहुत अच्छा हो गया होता । इन संत-कवियों के रहस्यवाद का स्वरूप और हिंदी के अन्य ऐसे कवियों को तुलनायें, उसकी विशेषता का निरूपण यहाँ अपेक्षित रहा । संतों की रचनाओं में प्रयुक्त छंदों और उनके संबंध में की गई उनकी भूलों के विवरण देने की यहाँ उतनी आवश्यकता नहीं थी। डा० बड़थ्वाल ने इसके तथा उनकी व्याकरण-संबधी त्रुटियों के विषय में इसी कारण, बहुत विस्तार नहीं किया है । उल्टवासियों की चर्चा भी उन्होंने वहुत कम की है। डा० बड़थ्वाल के निबंध लिखने का सर्वप्रधान उद्देश्य इन संतों का साम्प्रदायिक परिचय देना ही प्रतीत होता है। उन्होंने 'संत' शब्द एवं निर्गुण शब्द की व्युत्पत्तियों पर पहलं ध्यान दिया है और कहा है कि ये दोनों ही समानार्थक बनकर प्रचलित हैं । फिर भी उन्होंने पहले का परित्याग कर दूसरे को ही अपनाया है और ऐसा करने का कारण उन्होंने अधिक उपयुक्त शब्द का अभाव ही बतलाया है । डा० वड़थ्वाल ने 'निर्गुण' शब्द-संबंधी इस प्रकार के प्रयोगों के उदाहरण, कबीर गुलाल व किनी कबीरपंथो की एकाध रचनाओं के उद्धरण देकर उनमें ढूंढने के प्रयत्न किये हैं। किंतु इन रचनाओं में से “संतन जात न पूछो निर्गुनिया" का कबीरकृत होना सदेहरहित नहीं कहा जा सकता और 'हम निर्गुए। तुन सरगुग्ण जाना' में व्यक्त होनेवाला कबीर का कथन भी वस्तुतः सगुण वादियों से अपनी भिन्नता सिद्ध करने के लिए ही किया गया कहा जा सकता है। हाँ गुलाल साहब की पंक्ति 'निर्गुणमत सोई वेद को अंता' तथा 'निरगुनपंथ चलाये' में प्रकट होनेवाली किसी कबीरपंथी की उक्ति अवश्य विचारणीय है । बात यह है कि संतमत का प्रादुर्भाव उस समय हुआ था जब सगुणवादियों को साकारोपासना प्रचलित थी और उसे निःसार वा कम से कम निम्न कोटि की पद्धति सिद्ध करने के लिए कबीर जैसे संतों को भीअपनी विशेषताएँ सर्व साधारण के सामने