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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४८

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( २१ ) उसके प्रदर्शित करनी पड़ी थीं। इस कारण यद्यपि उनके भक्तिभाव का लक्ष्य निर्गुण एवं सगुण दोनों से परे का परमतत्त्व था फिर भी, सगुण- वादी पक्ष के विरोध में वे 'निर्गुए।' शब्द का प्रयोग करना कदाचित्, अधिक उपयुक्त समझते रहे और इस बात में उनका अनुकरण बहुत पीछे तक होता चला पाया । परंतु जव संत-संप्रदाय का एक विशेष वर्ग क्रमशः प्रतिष्ठित हो गया तब उक्त विरोध सूचक शब्द की वैसी उपयो- गिता नहीं रह गयी और हम देखते हैं कि विक्रम की अठारहवीं शताब्दी के अनंतर और विशेषकर संत तुलसी साहब के समय से, स्थान पर 'संत' शब्द का ही प्रयोग अधिकाधिक होने लगा। तब से कबीर आदि को भी साधारण प्रकार के भक्तों वा महात्मानों से भिन्न एक संत संप्रदाय के अंतर्गत माना जाने लगा। उनके इस नामकरण का कारण एक यह भी हो सकता है कि उनको विचारधारा एवं दक्षिण के संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव प्रभृति मराठी कवियों की विचारधारा में बहुत साम्य था और संभवतः, इस प्रकार की सूझ ने भी उक्त शब्द के प्रयोग में अधिक सहायता पहुँचाई। जो हो, 'संत' 'संतमत' 'संतपरंपरा' 'संत- साहित्य' जैसे शब्दों ने अब क्रमशः 'निर्गुनि या' 'निर्गुणमत' 'निर्गुणपंथ' वा 'निर्गुण संप्रदाय' एवं 'निर्गुणधारा का साहित्य' के स्थान ले लिये हैं, इस कारण इसके प्रयोगों की सार्थकता अब प्रांरभिक काल की भांति नहीं समझी जा सकती। डा० बड़थ्वाल ने निर्गुण संप्रदाय अथवा संतों के उपर्युक्त वर्ग के अंतर्गत उन लोगों की ही गणना की है जिनके सिद्धात व साधना-पद्धतियाँ एक विशेष प्रकार की रहीं और जिन्होंने हिंदी भाषा को अपना माध्यम बनाते हुए, उसकी कविता में एक विशेष शैली का प्रयोग भी किया। तदनुसार, उन्होंने कबीर से लेकर शिवदयाल तक के समय अर्थात् लगभग पाँच सौ वर्षों के भीतर उत्पन्न हुए प्रमुख संतों और उनके पंथों के विषय में विचार किया है। भिन्न-भिन्न समय तथा परिस्थितियों में रहते हुए