( २२ ) भी इन संतों ने आत्मा, परमात्मा एवं जगत्-संबंधी गूढ़ प्रश्नों को एक विशेष प्रकार के दृष्टिकोण से सुलझाने की चेष्टा की, परमात्मतत्व के स्वरूप के विषय में अपनी विशिष्ट धारणाएँ निश्चित की और उसकी उपलब्धि के निमित्त विशेष साधनाएं भी स्थिर की। डा० बड़थ्वाल ने उक्त सभी बातों की दृष्टि से इनमें कुछ न कुछ साम्य आधार पाकर इनको 'निर्गुण संप्रदाय' के वर्ग में सम्मिलित कर लिया है और अपने निबंध के अंतर्गत उन्होंने अधिकतर उन्हीं बातों का विवेचन किया है जो प्रायः सभी में पायी जाती हैं तथा जिनके विषय में इनमें कम से कम मतभेद प्रतीत होता है । इन संत कवियों की अटपटी वानियों में उन्होंने एक दार्शनिक व नैतिक प्रणाली का क्रम भी ढूंढ निकाला है और इन्हें एक पृथक् समुदाय के रूप में मानते हुए, इनके मत विशेष की एक रूप- रेखा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है उन्होंने इसी प्रकार संतों की आध्यात्मिक साधना का परंपरागत सम्बन्ध नाथपंथ की योगसाधना के साथ स्थापित किया है और इन दोनों के बीच की लड़ो निरंजनी संप्रदाय को माना है। संतों के प्रात्मा, परमात्मा एवं जड़ पदार्थ-सम्बन्धी मत का विवेचन करते समय डा० बड़थ्वाल ने उनमें कम से कम तीन प्रकार की दार्शनिक विचारधारागों के उदाहरण पाये हैं और उन्हें परंपरागत वेदांतीय नामानुसार अद्वैत, भेदाभेद व विशिष्टाद्वैत कहा है। इस वर्गीकरण के आधार पर उन्होंने कबीर, दादू, सुन्दरदास, जगजीवनदास, भीखा व मलूक के नाम प्रथम वर्ग में, नानक व उनके अनुयायियों के नाम दूसरे वर्ग में और शिवदयाल तथा उनके अनुयायियों के नाम तसरे वर्ग के भीतर गिनाये हैं और प्राणनाथ, दरियाद्वय, दीनदरवेश, बुल्लेशाह इत्यादि को भी इस तीसरी कोटि में ही रखा है। परन्तु आगे चलकर उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि इन अद्वैतवादियों में सर्वप्रथम होते हुए भी कम से कम कबीर ने इन सभी दृष्टियों से विचार किया
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