परिशिष्ट २ हुश्रा, भिन्न-भिन्न संतों के वचनों का एक संग्रह है जिसे उन्होंने रचयिताओं के संप्रदायों का ध्यान न रखते हुए, केवल रचनाओं के संत-मतानुकूल होने की दृष्टि से ही प्रस्तुत किया है। यह 'सर्वागी' नामक संग्रह ग्रंथ संतमत सम्बन्धो विचारों का पूरा सारग्रंथ भी है । दुर्भाग्यवश इसका हस्तलेख बहुत दिनों से अधूरा चला आता है और इसके आदि एवं अंत के कुछ पृष्ठ नष्ट हो चुके हैं । इसी कारण इस हस्तलेख का ठीक- ठीक लिपिकाल भो निश्चित नहीं किया जा सकता। फिर भी इसका कागज कमसे कम दो सौ वर्ष पुराना है। संभवतः यह रजबदास के ही लिए शाहजहाँ के शासन-काल में लिखा गया होगा। प्रारम्भ के पृष्ठों के नष्ट हो जाने के कारण खो गई हुई दादू बानी फिर से लिख दी गई है। इस नये रूप में लिखित अंश में पद्यों की संख्या पहले से अधिक है और इससे पता चलता है कि सर्वप्रथम संगृहीत व संपादित होने के अनंतर भी ये बानियाँ बढ़ती गई हैं। यह हस्तलेख तथा 'आदिग्रंय' कबीर के पूर्वकालीन संतों के अध्ययन में बहुमूल्य सहायता पहुंचाते हैं। नामदेव एवं रैदास की बानियों को वेलवेडियर प्रेस ने भी प्रकाशित किया है। मुझे पता चला है कि प्राणनाथ के भी कुछ ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं किंतु मुझे उनमें से एक भी नहीं मिल सका है। उनके इस्तलेखों को प्राप्त करने के भी मेरे प्रयत्न असफल हो गये । काशी नागरी प्रचा- रिणो सभा की भिन्न-भिन्न खोज-रिपोर्टों में प्रकाशित केवल 'प्रगटबानी' 'ब्रह्मबानी', 'रेमपहेली', व 'तारतम्य' के कुछ अवतरणों से ही मुझे संतोप करना पड़ा है। शिवनारायण एवं दीनदरवेश की रचनाओं का भो मैं उससे अधिक उपयोग न कर सका जितना मुझे शिवव्रतलाल के 'सुरति शब्दयोग कल्पद्रुम' तथा विल्सन के 'रेलिजस सेक्ट्स श्राफ दि हिंदूज' में प्रकाशित कतिपय अवतरणों अथवा अनुवादों से उपलब्ध हुश्रा । किंतु उतने से हो मुझे अपने काम की सामग्री न मिल सकी। शिवनारायण
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