है । इसके सिवाय उनका यह भी कहना है कि जीवात्मा एवं परमात्मा के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में नानक का भी मत बहुत स्पष्ट नहीं है। हाँ, बाबालाल, प्राणनाथ, धरणीदास एवं शिवदयाल के मतों में उन्होंने विशिष्टाद्वैतमत का प्रभाव अवश्य निर्दिष्ट किया है जो इनकी अनेक पंक्तियों द्वारा भी सिद्ध किया जा सकता है और जिस पर आपत्ति करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । फिर भी इतना स्पष्ट है कि ये संत तर्कपटु दार्शनिक होने के पहले स्वतंत्र साधक थे और इन्हें किसी भी वाद से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध भी न था। सुन्दरदास जैसे कुछ संतों न प्रचलित दार्शनिक ग्रंथों का अध्ययन अवश्य किया था, बावालाल, प्राणनाथ, यारी, दीनदरवेश व वल्लेशाह पर सूफ़ी विचारधारा का प्रभाव था और धरणीदास व चरणदास जैसे कुछ संत विशिष्टाद्वैत व शुद्धाद्वैत की परंपराओं से प्रभावित थे । परन्तु जहाँ तक इनका सम्बन्ध संतमत की मौलिक बातों के साथ था, ये पूर्ण स्वतंत्र थे और उस दृष्टि से ये किसी वाद के अंतर्गत नहीं लाये जा सकते । इन संतों के विषय में इस प्रकार का अनुमान करने का कारण केवल यही जान पड़ता है कि इन्होंने अपने मत का प्रतिपादन करते समय, किन्हीं अपने पारिभाषिक शब्दों की रचना बहुत कम की है और इस कारण इनके दाग प्रयुक्त किये गये औपनिषदिक शब्दसमूह अथवा नाथों, सूफियों, भागवतों आदि के सांप्रदायिक शब्द इस विषय में बहुधा भ्रम उत्पन्न कर देते हैं । यद्यपि सभी ने अपने समय के प्रचलित शब्दों का प्रयोग करते समय विसी प्रकार की सावधानी से काम नहीं लिया है फिर भी उनकी विचारधारा पूर्ववर्ती दार्शनिक सिद्धान्तों एवं भक्ति-पद्धतियों में, जिसके साथ अधिक मेल खाती है उस सिद्धान्त और पद्धति का निर्देश कर देना आवश्यक ही था। और इस दृष्टि से डॉ० बड़थ्वाल के ये निर्देश आगे आनेवाले विशिष्ट अध्ययनों के लिए बड़ ही महत्वपूर्ण है। प्रमुख संतों तथा उनके नाम पर प्रचलित होनेवाल पंथों की o
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