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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४९०

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हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय पृष्ठ १११ पंक्ति ८ । परात्पर--केसोदास ने भी कहा है "अकेला सतगुरु ही सत्यपुरष है जो पिंड एवं ब्रह्मांड के परे है (जो व्यष्टि शरीर एवं समष्टि शरीर स्वरूप हैं )। वह अंतिम दूरी से भी दूर है और उच्चातिउच्च से भी ऊँचा है। वहाँ तक के लिए न तो कोई मार्ग है, न चौमुहानी है न गली है और न कूचा है ।। पृष्ठ ११४ पंक्ति ४ । कबीरपंथ और विशेषकर उसकी धर्मासी शाखा के अंतर्गत निरंजन-सम्बन्धी भावना के विकास के लिए 'ग्रंथसूची' ( परिशिष्ट २ पृ० ) देखिये । पृष्ठ ११५ पंक्ति १२ । यद्यपि कबीर अद्वैतवादी थे फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि कबीरपंथी भी वही हैं। कबीर के प्रति उनकी श्रद्धा ने उन्हें कबीर के अद्वैतवादी सिद्धांत से विपथ कर दिया, क्योंकि, वैसा होने पर उनमें कबीर के साथ समानता का भाव आ जाता जो उनके लिए अधर्म की बात समझी जाती ।* इसी कारण वे विशिष्टाहती बन गये। फिर पीछे जब हिंदू एवं मुस्लिम भावनाओं का प्रभाव रोका न जा सका तो, निरपेक्ष तक की जगह कबीर को ही उसका धर्मदूत वा अवतार माना जाने लगा। धर्मदासी शाखा के अनुसार , --सतगुरु सत्य पुरुष है अकेला । पिंड ब्रह्मड ते बाहर मेला ॥ दूरिते दूर ऊँच ते ऊँचा । वाट न घाट गली नहिं कूचा ॥ 'महात्माओं की बानी' पृ० ३७३ । -पारस परसे कंचन भौ, पारस कभी न होय । पारस के अरस परस तें, सुबरन कहावै सोय ॥ 'बीजक' (साखी, ३४२)। 1-समरथ को परवाना लाये, हंस उबारन. पाये। कबीर शब्दावली, भा० २, पृ० ४७ । हम हैं हजूरी अवगत ब्रह्म के, हंस उबारन पाये हो। धर्मदास की शब्दावली, पृ० ३१ ।