पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४९१

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परिशिष्ट ३ ८६ वे सर्वोच्च पुरुष के कई पुत्रों में एक समझे जाने लगे और निरपेक्ष परमात्मा की भावना का परित्याग कर दिया गया . परिशिष्ट २ देखिये )। पृष्ट १२६ पंक्ति २६ । माया--कबीर के कथनानुसार, माया उस गाय के दूध की भाँति अनस्तित्व में है जो व्यायी नहीं हैं, अथवा उस भृङ्गी की ध्वनि के समान है जो खरहे की सींग की बनी है अथवा उस पुत्र के रमण करने की भाँति है जिसका जन्म बन्ध्या के गर्भ से हुआ है। फिर भी सापेक्षिक क्षेत्र के भीतर इस नितांत अभावरूपिणी माया को नष्ट कर देना महा कठिन है, क्योंकि माया की लता के अपने फलों के साथ नष्ट कर दिये जाने पर भी, इसकी सूखी डाल से, जलाये जाने पर भी कोंपल निकल पाती है। + . पृष्ट १५४ पंक्ति १ (पाद टिप्पणो ) । 'अन्य' में यह पद नानक का माना गया है। यही भाव अगले पद में भी पाया जाता है, जो 'ग्रन्थ' के अनुसार कबीर की रचना है।--राम रतन पाया करत विचारा, ( मैंने राम को विचार करते करते ही प्राप्त कर लिया ): 'प्रगटे विश्वनाथ जगजीवन मैं पाये करत विचारा'x भी देखिये । सोरह संख के आगे समरथ जिन जग मोहि पठाया। क० श०, भा० ३, पृ० २ । +-प्रांगरिण बेलि अकास फल, अरणव्यावर का दूध । ससा सींग की धुनहड़ी, रमै बाँझ का पूत ॥ अब तो ऐसी है पड़ी, ना तुंबड़ी ना वेलि । जालण प्राणी लाकड़ी, ऊठी कुंपल मेल्हि ।। 'कबीर ग्रंथावली' पृ०२६ । -क० ग्रं० पृ० ३१ ( ३१५, १६१ ) । x-वही, पृ० १७९ पद २६७ ।