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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/५१

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(२४ ) विचारधारागों में, डा. बड़थ्वाल, कोई विशेष अन्तर मानते हुए नहीं दाख पड़ते और कभी-कभी तो इसके विपरीत एक ही सम्प्रदाय के अनुयायी •विभिन्न संतों को उसके प्रवर्तक की मौलिक विचारधारा से नितांत भिन्न सिद्धांतों का समर्थक समझते हुए भी जान पड़ते हैं । उदाहरण के लिए निवन्ध के एकाध स्थलों पर एमा प्रतीत होता है कि कवीर के मू: सिद्धान्तों और कबीरपंथ की साम्प्रदायिक स्वातों में ‘उन्होंने किसी प्रकार की असमानता का अनुभव नहीं किया है और इसी प्रकार दूसरी ओर भीखा, पलटू तथा यारी साहब को उन्होंने एक दूसरे से कुछ न कुछ भिन्न मार्ग ग्रहण करनेवाला मान लिया है। वास्तव में यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो इस प्रकार का अन्तर नितांत स्वाभाविक है क्योंकि संतमत के व्यापक सिद्धान्तों में जहाँ एक प्रमुग्व संत की दूसरे के साथ समानता है, वहाँ साधना के सम्बन्ध में एक दूसरे से सूक्ष्म मतभेद भी लक्षित होता है और उनके नामों पर प्रचलित किये गये प्रायः सभी पंथों में अपने प्रवर्तकों द्वारा निर्दिष्ट मत का न्यून.धिक विकसित और कहीं-कहीं बहुत कुछ भिन्न रूप भी दिखलायी पड़ता है किन्तु समस्त सम्प्रदाय की विशेषताओं के निर्देशन में हम पंथ के प्रवर्तक की बातें ही अधिक रूप से ग्रहए करते हैं. यद्यपि किसी भी सम्प्रदाय के स्वरूप को पूर्ण स्पष्ट करने के लिए इस प्रकार के ,अन्तर और सूक्ष्म भेदों की ओर भी संकेत कर देना आवश्यक होता है । कबीर के मूलमत एवं कबीरपंथ के साम्प्रदायिक सिद्धान्तों में जहाँ कुछ अन्तर है, वहाँ बावरीपन्थ के संतों में ऊपर से लेकर पलटू साहब तक एक प्रकार के क्रमिक विकास की धारा अबाधर ति से प्रवाहित होती हुई चली आई है और उसके अनुयायियों को किसी प्रकार पृथक कर लने का कोई वैसा कारण नहीं दीख पड़ता। 'निर्गुण सम्प्रदाय' के संतों की जितनी विशेषताएँ उनकी उपलब्ध रचनाओं में लक्षित होती हैं उनसे कहीं अधिक, उनके वास्तविक जीवन --