सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/५०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परिशिष्ट ३ ४२३ प्रथम सम्बन्ध में विद्वानों ने अपनी भिन्न-भिन्न धारणाएँ निश्चित कर ली हैं। नु द्वितीय शताब्दी के अन्तर्गत बुद्ध के उपदेशों में स्पष्ट अन्तर लक्षित होने लगा था जैसा कि प्रज्ञा व महायान सम्प्रदाय के सिद्धांतों- द्वारा प्रमाणित हो जाला है। साँवी तथा सारनाथ के शिलालेखों से यह भी प्रमाणित होता है कि सम्राट अशोक को भी इस प्रकार की अधार्मिक प्रवृत्तियों को रोकने के लिए कठोर श्राज्ञाएँ निकलनी पड़ी थीं । अतएव इसमें श्राश्चर्य नहीं कि योगमत को बोद्ध धर्म ने बहुत पहले से अपनाना प्रारम्भ कर लिया था। यह बात कुछ अंशों में उन यौगिक पद्मासनों-द्वारा भी सिद्ध हो जाती है जिनमें हमें अधिकतर सभी प्राचीन- तम मूर्तियों के बुद्ध, बटे हुए दिखलायो पड़ते हैं। कहा जाता है कि नागार्जुन ( तीसरी शताब्दी) ने अपने जीवन-काल को अपनी नाकद्वारा पानकर बढ़ा लिया था। यह साधना उन नेती आदि शरीरशोधक यौगिक साधनाओं की पूर्वगामिनी हो सकती है जिनका अभ्यास योगी लोग किया करते हैं ।* योगमत का बौद्धधर्म में श्राकर अपने भीतर भिन्न-भिन्न संप्रदायों को अस्तित्व में लाना, इस बात से प्रकट होता है कि उसके अन्तर्गत नाथ सम्प्रदाय और सिद्ध सम्प्रदाय जैसे उन योगमार्गी वर्गों का भी प्रचार होने लगा जिनकी उत्पत्ति बौद्धधर्म से ही बतलायी जाती है । इस प्रकार बुद्ध को, श्रागे चलकर, योग के उस षटचक्र सिद्धांतानुसार भी महायोगी माना जाने लगा+ जिसकी परिणति ... वाटसः 'प्रॉन युवान च्वांग' भा० २, पृ० २०३ । -वाटर्सः 'प्रॉन युवान च्वांग भा० २, पृ० २०३ । +-पट्चक्र का भावनापरिगतं हृत्पद्ममध्यस्थित, संपश्यञ्छिवरूपिणं लयवशादात्मानमध्याश्रितः । युष्माकं मधुसूदनो नववपुर्धारी स भूयान्मुदे, यस्तिष्ठत्कमलासने कृतरुचिर्बुद्धैक लिंगाकृतिः ।। सुभाषित रत्न भाण्डागार, पृ० २७ श्लो० २०३ ।