पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/५०६

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. ४२४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय सहस्रार में होती है। महायोगी बुद्ध का इतिहास बहुत प्राचीन है और यह सम्भव है कि उक्त केशराशि, अन्य भौतिक वस्तुओं की अपेक्षा सहस्रार की ही प्रतीक हो। यह बहुत कुछ हिस्रार के उस . प्रतिरूप के ही समान है जो प्रावेलन को पुस्तक / सर्पेट पावर' में दिया गया । बुद्ध की मूर्तियों के शिरों के उच्चतम भाग में जो अंश एक थोड़ा सा दीख पड़ता है उसके विषय में कहा जाता है कि यह विलक्षणता "कभी-कभी चामत्कारिक घटना के रूप में प्रकट होती है" और "उसका प्रत्यक्षीकरण सर्वसाधारण के लिए नहीं हुआ करता।": इससे स्पष्ट है कि किसी समय यह भी समझा जाता था कि बुद्ध के शिर के सम्बन्ध में कोई रहस्यपूर्ण बात अवश्य है । मुझे तो यह जान पड़ता है कि पूर्वकालीन मूर्तियों में सहस्रार के उस संकेत को न समझ सकने के कारण, जिसके उदाहरण कार्लीगुफा. के उभारों में पाये जाते हैं, गांधार के ग्रोक शिल्पियों ने उसे झब्येदार बालों के रूप में परिवर्तित कर दिया और उक्त कला के श्रागे पुनरुद्धार हो जाने पर भी पुरानी भूल ज्यों की त्यों बनी रह गई। पृष्ठ २४६ पंक्ति १७ । आँखों का उलटना-इस क्रिया का प्रसंग प्रायः इन सभी संतों में पाया है। इसके प्रमाण में अन्य. अनेक उद्धरण भी नीचे टिप्पणी में दिये जाते हैं ।* आँखों के उलटने का अभिप्राय कभी-कभी आध्यात्मिक अन्तर्मुखीकरण (प्रत्यावर्तन की यात्रा) भी लिया जा सकता है। किन्तु यह क्रिया निश्चित रूप से योगाभ्यास की भी है।

-वाटर्सः 'प्रॉन युवानच्वांग' भा० १, पृ० १६७ । है दिल में दिलदार सही, अखियाँ उलटी करि ताहि चितइए । सुन्दर विलास पात्मानुभव, १,