४२६ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय स्वर्ण में श्रावृत होरे के रूप में की है। कबीर ने मघा नक्षत्र में गर्जनेवाले मेघों का वर्णन किया है जब असंख्य तारागण की चकमक बनी रहती है, बिजली चमकती है और परिणाम यह होता कि साधक उस समय होनेवाली वृष्टि से सराबोर होकर अनुभूति को उत्कृष्टतम दशा को पहुँच जाता है ।+ बुल्ला ने भी त्रिकुटी का बिजली के प्रकाश में देखा है जब अाकाश काले-काले बादलों से भर जाता है और अनाहत का गर्जन सुन पड़ने लगता है ।। यारो को गगन ( त्रिकुटी ) का गर्जन सुन पड़ता है और छत्तीसों राग त्रिवेणी के उस किनारे पर सुन पड़ते हैं। जहाँ से तीनों तीर उद्भून होते हैं और जहाँ पर अन- हद की बाँसुरी बजा करती है ।* इन संतों ने परमात्मा की भी चर्चा को है जिसे इन्होंने श्वेतरूप में देखा है। गुलाल कहते हैं "अरे मन श्वेत का सुन्दर होता हुआ देख । वह उज्जवल प्रकाश और वह स्फटिक- मयो ज्योति वर्णनातीत है। समय बीतते जाने पर भी मजिन न होने-' । - जब होग हिरम्ब र होइहै, तब छ टिहै संसार । सं० बा० सं०, २१०१ पृ० १२२ । +-गगन गर जि मघ जोइए, तहँ दी व तार अंनतरे । बिजुरी चमवा धन बर खिहैं तहँ भीजत है सब संत रे ।। क० ग्र०, पृ० (८८-४) 1-श्याम घटा घनघोर चहूँ दिशि पाइया । अनहद बजै अथोर तब गगन सुनाइया ।। दामिनि दमक जे त्रिवेणी जनाइया । बूला हृदय विचार तहाँ मन लाइया ।। म० बा०, पृ० ७६, पृ० ५७ । -बाजत अनहद बाँसुरो तिरबेनी के तीर । राग छतीसों होइ रहे गरजत गगन गंभीर ।। सं० बा० सं०, भा० १, पृ० १२१ ।
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