हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय सेख प्रकी सेख. सकी तुम मानहु बचन हमार ॥ आदि अंत औ जुग जुग देखहु दृष्टि पसार । 8--साँचे साधु जु रामानंद । जिन हरिजीसों हित करि जान्यो, और जानि दुख दंद ।। जाको सेवक कबीर धीर अति सुमति सुरसरानंद । तव हरिदास उपासिक हरिको सूरसु परमानंद ॥ उनते प्रथम तिलोचन नामा, दुखमोचन सुखकंद । खेम सनातन भक्ति सिंधु रस रूप रघु रघुनंद ॥ अलि रघुवंश हि फब्यो राधिका पद पंकज मकरंद । कृष्णदास हरिदास उपास्यो, बृन्दावन को चंद ॥ जिन बिन जीवन मृतक भये हम, सहत विपति के फंद । तिन बिन उर को सूल मिटै क्यों जिये 'व्यास अतिमंद ।। -राधाकृष्णदास-द्वारा अपने 'सूरदास का जीवनचरित्र उद्धृत ( देखिये 'राधाकृष्ण ग्रन्थावली', भा० १ पृ० ४५४ । ) ॥ आपन अस किये बहुतेरा । काहु न मरम पाव' हरि केरा ॥ इन्द्री कहाँ कर बिसरामा । (सो) कहाँ गये कहत हुते रामा ॥ सो कहाँ गये जो होत समाना । होय मृतक वहि पदहि समाना । रामानंद राम रस माते । कहहिं कबीर हम कहि कहि थाके ॥. -'बीजक' पद ७७ । इस पद की प्रारंभिक पंक्ति का पाठ साधा- रणतः 'अपन पास किजे' पाया जाता है, किंतु विचारदास ने अपने सटिप्पण संस्करण की पाद टिप्पणी में वही पाठ दिया है जिसे मैने अपने उद्धरण में स्वीकार किया है, यद्यपि उन्होंने स्वयं इसे स्वीकार नहीं किया है । किंतु मुझे जान पड़ता है कि इस पद का यही पाठ इसे बोधगम्य रूप देता है।
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