पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/५१७

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परिशिष्ट ३ - राम मोहिं सतगुर मिले अनेक कलानिधि, परमतत्त्व सुखदाई । काम अगिन तन जरत रही है, हरि रस छिरकि बुझाई। दरस पेस ते दुरमति नासी, दीन रट नि ल्यौ पाई । पाषंड भरैक कपाट खोलि के, अनभै कथा सुनाई। यहु संसार गभीर अधिक जल, को गहि ल्यावै लीरा । नाव जहाज खेवइया साधू, उतरे दास कबीरा॥ क० ग्रं० ( १५२-१६०)। घर के देव पितर को छोड़ी, गुरु के सबद लयो । -ग्रन्थ ( ४६२-६४ ) । १०-संवत पंद्रह सौ प्रौ पाँच मो, मगहर कियो गवन । अगहन सुदी एकादसी, मिले पवन में पवन ॥ संवत पंद्रह सौ पछत्तरा, कियो मगहर को गवन । माघ सुदी एकादसी, रलो पवन में पवन ॥ -विल्सन को केवल पहली साखी ही मिली थी। दूसरी किसी समय पीछे दीख पड़ने लगती है। ट्रैवनियर तथा अबुलफजल दोनों ही पुरी की किसी ऐसी अनुश्र ति को चर्चा करते हैं जिसके अनुसार कबीर जगन्नाथ के मन्दिर के निकैट गाड़े गये थे। (ट्रेवनियर ट्रैवल्स भा० २ पृ० २६६, पुरी का डिस्ट्रक्ट गजेटियर पृ० १०४ तथा जैरेट भा० २ पृ० १२६ ) । ११-हिन्दुस्तानी ( त्रैमासिक पत्रिका ) १६३२ पृ० २०९-२१३ । १२-करवतु भला न करवट तेरी । लागु गले सुन विनती मरी । कहहिं कबीर सुनहु रे लोई । अब तुमरी परतीत न होई ॥ 'ग्रंथ' पृ० २६२ । सुन अँधली लोई बे पीर । इन मुंडियन भजि सरन कबीर ।।