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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/६४

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एक प्रधान सीमाचिह्न ( Land mark ) का महत्व रखता है । उन्होंने एक ऐसे विषय को लिया था जो उस समय के लिए, एक प्रकार से, नितांत नवीन था और जिसके प्रायः किसी भी अंग-संबंधी खोज की ओर विद्वानों का ध्यान तक नहीं जाता था। वास्तव में इस विषय को 'कसी खोज का उद्देश्य होन की गंभीरता तक भी देना अनेक विद्वान् उचित नहीं समझते थे । कबीर व नानक जैसे दो चार संतों को छोड़ कर शेष के नामों तक से बहुत से लोग अपरिचित थे और उनकी चर्चा उन दिनों केवल धर्म व समाज के साधारण सुधारकों में ही करके उन्हें छोड़ दिया जाता था। उनकी उपलब्ध रचनाओं की गएना या तो धार्मिक उपदेशों में की जाती थी अथवा उन्हें कतिपय साधुओं की अट- पटी बानियों में गिना जाता था । संतों की अधिकांश रचनाएँ अनेक स्थानों पर हस्तलिखित रूप में ही पड़ी हुई थीं। सांप्रदायिक भावना- वाले उन्हें अमूल्य किंतु, परम गोप्य व रक्षणीय मान कर उनकी पूजा किया करते थे और सर्व साधारण उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे । सांप्रदायिक दृष्टिवाले व्यक्तियों के लिए उन्हें प्रकाशित करा कर सबके समक्ष लाना जहाँ उनकी प्रतिष्ठा व मर्यादा से नीचे की ओर ले जाना था, वहाँ अन्य लोगों के लिए ऐसा करना अपने द्रव्य का दुरुपयोग मात्र था। कुछ लोगों का उन्हें अपने पास, जैसे-तैसे हस्तलिखित रूप में सुरक्षित रख छोड़ना ही बहुत कुछ था, क्योंकि, यदि इतना भी न हुआ होता, तो आज उनका पता लगा सकना भी कठिन हो गया होता । 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' जैसी एकाध संस्थानों तथा कतिपय साहित्य-प्रेमी व्यक्तियों ने जब इस प्रकार की पुस्तकों की खोज का काम प्रारंभ किया तो इसका भी परिचय मिलने लगा और इनमें से कई एक प्रयाग के 'वेलवेडियर प्रेस' आदि से प्रकाशित होकर, क्रमशः सर्व साधारण का भी ध्यान आकृष्ट करने लगीं। डा० बड़थ्वाल ने जब ऐसे साहित्य का अध्ययन आरंभ किया उस