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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/६५

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( ३८ ) समय तक भी जैसा पहले कहा जा चुका है, ये पुस्तकें निरी नीरस बानियों का संग्रहमात्र समझी जाती थीं और इनके भीतर किसी सुसंगत विचारधारा के विद्यमान रहने तक की कल्पना करना कठिन था। डा० बड़थ्वाल ने 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' की खोज-रिपोर्टों तथा कुछ जानकारों के कथन के आधार पर, ऐसे ग्रंथों को एकत्रित कर उन्हें आद्योपांत पढ़ डालने का प्रयत्न किया, प्रत्येक संत की उपलब्ध रच- नाओं के अंतर्गत उसके विचारस्रोतों का पता लगाया और उनकी पारस्परिक तुलना के सहारे उन्हें एक वर्ग-विशेष में परिगएित करने की चेष्टा की। पूरी संत-परंपरा के अंतर्गत आनेवाले उसके अंग-स्वरूप भिन्न-भिन्न पंथों व संप्रदायों का भी उन्होंने यथासंभव पता लगाया और उनकी विशेषताओं पर विचार किया। फिर भी संतों की वानियों का वास्तविक रहस्य समझ लेना कुछ सरल काम न था और इसके लिए उन्हें कई विशेषज्ञों से भी सहायता लनी पड़ी। ऐसी गूढ़ बातों के जानकार सांप्रदायिक व्यक्ति इन्हें परम गुण माना करते हैं और इन्हें अपने अनुयायियों के अतिरिक्त किसी अन्य पर प्रकट कर देना अपने कर्तव्य से च्युत हो जाना मानते हैं । अतएव, डा० वड़थ्वाल को, इन्हें समझने के लिए, अधिक परिश्रम, उपलब्ध ग्रंथों के अध्ययन व अनुशी- लन में ही करना पड़ा और उनके ज्ञान का एक बहुत बड़ा अंश ऐसे ही परिशीलन व मनन का परिणाम कहा जा सकता है। डा० बड़थ्वाल ने इस प्रकार न केवल एक नवीन व अज्ञात क्षेत्र में काम किया, अपितु, उन्हें अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए घोर प्रयास भी करना पड़ा। डा० बड़थ्वाल के निबंध के प्रकाश में आ जाने के समय से संत- साहित्य की खोज तथा उसके प्रकाशन, प्रचार व अध्ययन की प्रगति में एक प्रकार की शक्ति सी आ गई है । खोजी व्यक्तियों व संस्थानों ने इधर ऐसे अनेक ग्रंथों का पता लगा लिया है जिनके केवल नाममात्र से ही हम लोग परिचित थे । हस्तलिखित ग्रंथों को देख लेने पर अब