पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/६६

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( ३६ ) यह भी क्रमशः स्पष्ट होता जा रहा है कि अमुक रचना को सहसा अमुक संत की ही कृति मान लेना ठीक नहीं । पंथ व संप्रदाय के पिछले अनुयायी, उसके मूल प्रवर्तक के नाम से, बहुत सी पुस्तकें बहुधा स्वयं ही लिख दिया करते थे और इस प्रकार किसी प्रमुख संत के विचारों के भी संबंध में भ्रम उत्पन्न हो जाता रहा । ऐसी रचनाएँ कभी- कभी उन गोष्ठियों के रूप में भी पाई जाती हैं जिनमें गोरख, दत्त गणेश, महादेव आदि तक के साथ बातचीत करायी गई रहती है और जिनके द्वारा अनेक प्रश्नों के विषय में वाद-विवाद करा कर ऐसे संतों की जीत एवं पूर्वकालीन व्यक्तियों की हार प्रदर्शित की गई रहती है। एसी पुस्तकों के रचयिता अथवा रचनाकाल का तो ठीक पता नहीं हो पाता, किंतु पंथ के सांप्रदायिक दृष्टिकोण पर इनसे बहुत कुछ प्रकाश पड़ जाता है और मूल प्रवर्तक के विचारों के ऋमिक विकास के अध्ययन में भी कभी-कभी सहायता मिल जाती है । कबीर-पंथी साहित्य के अंतर्गत इस प्रकार की रचनाएँ बहुत बड़ी संख्या में पायी जाती हैं और उनमें से कई एक का इधर प्रकाशन भी हो गया है। मूल ग्रंथों के प्रकाशन के साथ-साथ भिन्न-भिन्न संतों तथा उनके नामों पर प्रचलित सम्प्रदायों के सम्बन्ध में लिखी गई पुस्तकों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है। कबीर, नानक एवं दादू के जीवन- वृत्त और सिद्धांतों का अध्ययन इधर विशेष रूप से हुआ है । कबीर- पंथ, सिखधर्म, दादूपंथ, राधास्वामी सत्संग, रामसनेहीं सम्प्रदाय आदि के अनुयायी तथा रैदासी भी इधर ग्रंथरचना में विशेष तत्परता दिखला चुके हैं और कुछ असांप्रदायिक विद्वानों ने भी इनके तथा इनके मूल- प्रवर्तकों के विषय में बहुत कुछ आलोचनात्मक ढंग से लिखन का प्रयास किया है । उक्त पंथों वा सम्प्रदायों की विविध संस्थानों न अपने आदि संतों के नाम पर कभी-कभी मेलों और उत्सवों का भी आयोजन किया है जिनमें निबन्धों के पठन व व्याख्यानों के अतिरिक्त