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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/७७

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ही कहना चाहता हूँ कि चतुर्वेदी जी आज जित दृष्टि से लिख रहे है और अब तक जो सामग्री सामने आ चुकी है उसके आधार पर, यह बहुत सम्भव है कि डा० बड़थ्वाल भी इसी प्रकार के निष्कर्षों पर पहुँ- चते जिन पर चतुर्वेदी जी आज पहुँच रहे हैं। जब उन्होंने थोसिस लिखी थी, तब इस सम्बन्ध में अनेक ज्ञातव्य बातें उपलब्ध नहीं थीं और मेरा विश्वास है कि यदि समस्त पुस्तक डा० बड़थ्वाल-द्वारा अनु- वादित होकर पाती, तो उस समय तक के अध्ययन-सम्बन्धी विकास का समावेश उसमें अवश्य रहता। पुस्तक के नाम के सम्बन्ध में भी जो मतभेद है वह भी दूर हो जाता है जब हम डा० बड़थ्वाल-द्वारा संशो- धित एक प्रति में ( जो पुस्तक छपने के बाद मुझे देखने को मिल सकी ) हिंदी काव्य की निर्गुए धारा' ही नान पाते हैं। अतः यह अालोचना भी डा० बड़थ्वाल के द्वारा की गई भूलों का निर्देशन करने को दृष्टि से उतनी नहीं, जितनी कि ग्रंथ में पाई सूचनाओं को पूर्ण प्रारम्भिक एवं उपयोगी बनाने की दृष्टि से है। ग्रंथ के सम्पादक के रूप में मुझे यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि डा० बड़थ्वाल और चतुर्वेदी जी दोनों की शैली में कुछ न कुछ अन्तर अवश्य है जिसका अनुभव सम्भवतः विज्ञ पाठकों को होगा। ऐसा नहीं जान पड़ता कि समस्त पुस्तक एक ही प्रवाह में लिखी गई है। इसका एक कारण यह भी है कि डा० बड़थ्वालजी को यह अपनी कृति । जितनी स्वच्छन्दता वे, अपने अंग्रेजी में प्रकाशित भावों को हिंदी रूपान्तर देने में ले सकते थे उतनी अन्य कोई ले हो कैसे सकता है ? और फिर अपनी शैली की विशेषता भी रहती ही है । चतुर्वेदी जी की अनु- मति प्राप्त कर मैंने दोनों ही शैलियों में यथासम्भव साम्य लाने का प्रयत्न किया है और इसके लिए मैं चतुर्वेदी जी का आभारी हूँ। यहाँ पर यह भी कह देना आवश्यक है कि ये सब सुविधाएँ प्राप्त करते हुए भी मैं इसके सम्पादन के लिए जितमे श्रम और समय की अपेक्षा थी