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३४: हिन्दी-निरुक्त
 

हैं : 'बड़ के छोटे-छोटे फल आपने देखे ही होंगे। उड़द की दाल पौस कर उतनी ही उतनी बड़ी गोली-सी बना कर लोग सुखा लेते हैं ओर मसालेदार बना कर रोटी के साथ खाते रहते हैं। 'वड़' के वे फल 'बड़ों नाम से अभिहित हए और उन के ही बराबर की बनो हुई ये उड़द-पिट्ठी की गोलियां भी 'बड़ी' कही जाने लगी-परिमाण- साम्य में । इसी दाल-पिट्टी की कुछ बड़ी चीज भी बनायी गयी, जो तेल में तल कर और प्रायः दही में लपेट कर खायी जाती है। उस 'बड़ी' से इस चीज का आकार कुछ बड़ा हुआ, तो 'वड़ी' का बड़ा हो गया। को 'र हो गया, उच्चारण-साम्य से; और कदाचित् इस लिए भी कि 'बड़ी' और 'बड़े' को खाने का कर्म बनाना अखरा होगा। तो 'वड़ी' का 'वरी' और 'बड़ा' का 'बरा' हो गया । यह न समझना चाहिए कि पहले 'बरो' और 'बरा' वना; फिर बड़ी-बड़ा हो गया ! 'ट' के समोपतर 'ड' है ! फिर 'ड' और 'र' का मेल है; 'ट-र' का नहीं । खैर, इस तरह 'ट' को 'ड' हुआ करता है और 'ड' को 'ड'; फिर र'। 'पत्-पट-पड़' क्रिया--'गिरना-पड़ना'। 'त संस्कृत में 'द' के रूप में आता रहता है। फारसी में भी यही बात देखी जाती है। संस्कृत का 'शत' (माँ) फारसी में 'सद' हो जाता है और 'शती' का 'सदी' रूप सामने है। 'श' का 'स' हो ही जाता है। हिन्दी में 'त' बहुत कम 'द रूप में आता है। संस्कृत में 'त' को 'च' भी होता रहता है और हिन्दी में भी यह प्रवृत्ति है। दोनों का प्रयत्न एक है। 'सत्य' का 'सच' रूप सामने है। 'य' का लोप और 'त्' को 'च्' ! 'स्तम्भ' का रूपान्तर 'खम्भा है। यहाँ 'त' को 'क' का रूप मिला है, जो संस्कृत से भिन्न मार्ग है । 'स्तम्भ' के 'त्' को 'क्' हो गया और 'स्' को 'ह'। स्थिति हुई—'ह. क् अ म्भ' । हिन्दी ह' को आगे से प्रायः पीछे धकेलती रहती है और वही यहाँ हुआ। 'ह.' उठ कर 'क' के बाद जा बैठा, 'अ' से पहले-'क ह, अम्भ। क् और ह, मिल कर 'ख्' और फिर अगले स्वर से मेल ! 'खम्भ' हुआ, जिस में हिन्दी की पुं- व्यञ्जक विभक्ति 'आ' आ लगी। सवण-दीर्घ और खम्भा'-'स्तम्भ' से 'खम्भा'। हिन्दी में 'त्' कभी-कभी 'ल' के रूप में भी परिवर्तित हो जाता है। संस्कृत में तो 'त्' का 'ल' होना बहुत प्रसिद्ध चीज है। संस्कृत का 'पीत' वर्ण-वाचक विशेषण 'पीला' बन गया। त् का ल और अन्त में वहीं पु-व्यञ्जक विभक्ति 'आ'। दोनों