पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
हिन्दी-निरुक्त:४३
 

है। एक बात 'र' के सम्बन्ध में रही जानी है। यह नहीं बताया कि हिन्दी, बँगला तथा पंजाबो में बद र आया कहाँ से हमारा अनु- मान है कि संस्कृत के 'हरेगहम् -"मानोर्गम आदि रूपों से ही यह सम्वन्ध-बुचक्र अंश र लिया गया है और हिन्दी ने अपनी प्रकृति के अनुसार उसे सम्बर (र) कर लिया है। पूरन में 'तुम्हार-हमार' और बंगाल में 'सीतार', 'आमार आदि में रही है। पर जहाँ आ' तथा ओं -विभक्तियों का विकास हो चुका था. वहां इस (र) विभक्ति के भी अन्त में उसे लगा दिया गया और मवर्ग-दीर्घ कर के 'तुम्हारा-हमारा नया 'तुम्हारो-तिहारों आदिर बने : संस्कृत में भी एक विभक्ति के बाद दूसरी विभकिन लगती देखी गयी है। और, यहाँ तो 'आ' या 'ओ' जब धू-व्यंजक विभक्ति के रूप में चलीं, तो सब के साथ इन का प्रयोग जरूर हो ही गया; यदि घु-व्यंजक आवश्यक हैं । खैर, इस जगह हमें यह देखना है कि हिन्दी में संदलपात्मक विभक्तियाँ आयी ऋहाँ से ? इन का विकास या निकास देखना है। हम देखते हैं कि संस्कृत में विसर्ग प्रायः ' के रूप में परिणत हो जाता है। दोनों का स्थान कंठ है और उच्चारण समान । 'उपः' के विसर्ग आगे चल कर 'अ' के रूप में बदल गये.---'उप अ'। सवर्ण- दीर्घ--'पा'। एक ही अर्थ में एक साथ ही उप.' तथा 'उपा' इन दो शब्दों का चलन हुआ हो; ऐसा भाषा-विज्ञान के विद्वान् मान नहीं सकते। हिन्दी में भी 'ज्यादह आदि विदेशी शब्दों का रूपान्तर 'ज्यादा आदि हो गया है। वही वर्ण-विकार 'अ और सवर्ण-दीर्थ । फारसी के 'हे' व्यंजनान्त ज्यादह' आदि शब्दों में जो अल्य वर्ण है, उसका उच्चारण ह. किंवा विमों के समान ही है और इसीलिए कभी-ऋभी लोग भूल से 'ज्यदा:' जैसे रूप लिख भी देते हैं. जो ठीक नहीं। विसर्गो का प्रयोग संस्कृत शब्दों में ही उचित है। परन्तु भूल से लोग 'छह को भी 'छ:' लिखते चले जा रहे हैं ! उच्चारण-साम्य से यह गलती ! बात यह कि मुसलमानी शासन-काल में एक समय ऐसा आया कि हिन्दी एकदम निराश्रित हो गयी थी। पढ़े-लिखे वर्ग (कायस्य आदि) उई-फारमो के पुजारो बन कर राज-दरबार में घुस गये थे । अधिकांश राजा भी मुसलमानी रंग-ढंग स्वीकार कर चुके थे; कम से कम भापा के सम्बन्ध में तो वे किसी भी टोड़ी से कम न थे। हिन्दू राज्यों में उर्दू-फारसी चलने से वहाँ की प्रजा भी उधर ही