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१०:हिन्दी-निरुक्त
 

वह उच्चारण-भेद स्थाबी नहीं है ! दो वर्ष बाद वही बच्चा उन्हीं अब्दों को 'लब' तथा 'रोटी' के रूप में बोलने लगता है। हाँ, यह अवश्य सोचा जा सकता है कि बच्चा 'स' को 'छ' तथा '२ को 'ल' ज्यों बोलना है। उनके उच्चारण-यंत्र में क्या कमी-कमजोरी है। सो, यह विषय निरुक्त से अलग पड़ कर अन्य विपथ बनाता है। संक्षेप यह कि देश काल या प्रयोग-भेद से शब्दों के रूप में या अर्थ में जो विकास होता है, वहीं निरुक्त शास्त्र का अभिधेय है। __ शब्द का परिवर्तन मुख्यतः चार तरह से हो सकता है---१--वर्ण का आगम. २---वर्ग का विपर्यय या व्यत्यय, ३ वर्ण का विकार, ४-वर्ण का नाश या लोस । अर्थ-विस्तार तो अनन्त है। उसकी श्रेणियाँ नहीं बतायी जा सशनी । इसलिए, अर्थ-विकास के वैसे भेद नहीं किये गये । सो, चार नरह का शब्द-परिवर्तन और पाँचवाँ अर्थ-परिवर्तन निरुक्त शास्त्र में विचारणीय है। इसी को पूर्वाचार्यों ने संक्षेप में कह दिया है- दर्शाननो वर्णविपर्ययश्च, . ही चासरी वर्णदिकारनाशी। धातीस्तदर्थानिय येन योगः, तदुच्यते पञ्चविध निरुक्तम् । 'धानोस्तदातिशयेन योग:'--धातु का अर्थातिशय (अर्थ-विशेष) से योग । यहाँ 'धातु' का ही उल्लेख है, जो लक्षणा से हमें शब्दमात्र पर समझना चाहिए। धातु ही नहीं, संज्ञा-विशेषण आदि के अर्थों में भी अतिशय का आधान होता है। संस्कृत में तो लक्षणा की भी जरूरत नहीं; क्योंकि वहाँ तो प्रत्येक शब्द को 'धातुज' मानते हैं । यास्क यही मान कर चले हैं। तव धातु' कहने से शब्दमात्र का ग्रहण हो ही गया। ___आगे के अध्यायों में यही सब विस्तार से कहा जायगा। उपक्रम में इतना समझ लीजिए कि 'वर्ण के दो भद हैं-स्वर तथा व्यंजन । कभी वर्ण का आगम हो जाता है. न जाने कहाँ से कोई अक्षर आकर कूद पड़ता है और जम जाता है । 'कर्म' की स्थिति है 'क र म'। अर्थात् 'र' में कोई स्वर नहीं है। परन्तु काल-क्रम से एक 'अ' वीच में आ कूदा और 'र' को महारा देकर बैठ गया। आगे के 'अ' में मिलकर 'र' हो गया और 'करम' वन गया। यों स्वरागम हुआ।