आसुरी भाषा
आर्य्यों के पंजाब आने तक उनकी, और ईरानी शाखा के आर्य्यों की, भाषा परस्पर बहुत कुछ मिलती थी। पुरानी संस्कृत और मीडिक भाषा में परस्पर इतना सादृश्य है जिसे देख कर आश्चर्य होता है। जो लोग मीडिक भाषा बोलते थे उन्हीं का नाम असुर (अहुर) है। जब वे असुर हुए तब उनकी भाषा ज़रूर ही आसुरी हुई। वेदों और उनके बाद के संस्कृत-साहित्य को देखने से मालूम होता है कि देवोपासक आर्य्य सुरापान करते थे और असुरोपासक सुरापान के विरोधी थे। प्रमाण में वाल्मीकीय रामायण के बालकांड का ४५ वाँ सर्ग देखिए। जान पड़ता है, सुरापान न करने ही से ईरान की तरफ़ जानेवाले आर्य्यों से हमारे पूर्वज आर्य्य धृणा करने लगे थे। उनसे जुदा होने का भी शायद यही मुख्य कारण हो। पारसियों की अवस्ता में असुर उपास्य माने गये और सुर अर्थात् देवता घृणास्पद।
ऋग्वेद के बहुत पुराने अंशों में असुर और सुर (देव) दोनों पूज्य माने गये हैं। पर बाद के अंशों में कहीं-कहीं असुरों से घृणा की गई है। वेदों के उत्तर काल के साहित्य में तो असुर सर्वत्र ही हेय और निन्द्य माने गये हैं।
"असु" शब्द का अर्थ है "प्राण"। जो सप्राण या बलवान हो वही असुर है। बाबू महेशचन्द्र घोष "प्रवासी" में लिखते हैं कि 'असुर' शब्द ऋग्वेद में कोई १०० दफ़े आया है। उसमें से केवल ११ स्थल ऐसे हैं जहाँ इस शब्द का अर्थ देवशत्रु