परवर्ती नवागत आर्य्य जो मध्यदेश में बस गये थे उनकी भाषा का नाम सुभीते के लिए अन्तःशाखा रखते हैं। और जो पूर्ववर्ती आर्य्य नवागतों के द्वारा बाहर निकाल दिये गये थे अर्थात् दूर-दूर प्रान्तों में जाकर जो रहने लगे थे, उनकी भाषा का नाम बहिःशाखा रखते हैं।
इन दोनों शाखाओं के उच्चारण में फ़र्क है। प्रत्येक में कुछ न कुछ विशेषता है। जिन वर्णों का उच्चारण सिसकार के साथ करना पड़ता है उनको अन्तःशाखावाले बहुत कड़ी आवाज़ से बोलते हैं। यहाँ तक कि वह दन्त्य 'स' हो जाता है। पर बहिःशाखावाले वैसा नहीं करते। इसी से मध्य-देशवालों के 'कोस' शब्द को सिन्धवालों ने 'कोहु' कर दिया है। पूर्व की तरफ़ बंगाल में यह 'स' 'श' हो गया है। महाराष्ट्र में भी उसका कड़ापन बहुत कुछ कम हो गया है। आसाम में 'स' की आवाज़ गिरते-गिरते कुछ-कुछ 'च' की सी हो गई है। काश्मीर में तो उसकी कड़ी आवाज़ बिलकुल ही जाती रही है। वहाँ अन्तःशाखा का 'स' बिगड़ कर 'ह' हो गया है।
संज्ञाओं में भी अन्तर है। अन्तःशाखा में जो भाषायें
शामिल हैं उनकी मूल-विभक्तियाँ प्रायः गिर गई हैं। धीरे-धीरे
उनका लोप हो गया है। और उनकी जगह पर और ही छोटे-छोटे शब्द मूल-शब्दों के साथ जुड़ गये हैं। उन्हीं से विभक्तियों का मतलब निकल जाता है। उदाहरण के लिए हिन्दी
की 'का' 'को' 'से' आदि विभक्तियाँ देखिए। ये जिस शब्द